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यह स्मरण रखना जरूरी है कि हिन्दी का इतिहास वैदिक काल से आरंभ होता है

हिन्दी पत्रकारिता दिवस पर विशेष आज के दौर में पत्रकारिता हिन्दी पत्रकारिता की चर्चा करने से पूर्व हिन्दी के इतिहास को जानना जरूरी है। यह स्मरण रखना जरूरी है कि हिन्दी का इतिहास वैदिक काल से आरंभ होता है। हर युग में इसका नाम परिवर्तित होता रहा है, कभी वैदिक, कभी संस्कृत, कभी प्राकृत, कभी अपभ्रंश और अब हिन्दी। लेकिन एक बात बिल्कुल स्पष्ट और सिद्ध है कि हर कालखंड में अपने परिवर्तित नाम के साथ हिन्दी राष्ट्रीय एकता और संपर्क की भूमिका पूरी निष्ठा और क्षमता के साथ निभाती रही है। ब्रिटिशराज में हमें आपस में क्षेत्र या भाषा के नाम पर बरगलाया जाता रहा था। हमारी एकता कमजोर होने के कारण अंग्रेजों द्वारा लूट खसोट और अत्याचार होते थे। भारतीय भाषाओं में रोज़गार के अवसर घटते जा रहे थे। अंग्रेज़ी भाषा और सभ्यता शान की बात बन गयी थी। इन परिस्थितियों में जनता में असंतोष सुलग रहा था जो कालान्तर में भारतीय राष्ट्रीयता और राष्ट्रीय मुक्ति की भावना के उत्पन्न होने का कारण बना। सैकड़ों बोलियों-भाषाओं वाले इस देश में सब तक अपनी बात पहुँचाने के लिए स्वराज आंदोलन ने हिन्दी को अपना माध्यम बनाया। वैसे हिन्दी उससे पूर्व से ही व्यापार, तीर्थाटन और पर्यटन की राष्ट्रीय भाषा रही है। इस तरह हिंदी पत्रकारिता राष्ट्रीय एकता और राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन की संवाहक बनी। हिंदी का पहला अख़बार साप्ताहिक ‘उदन्त मार्त्तण्ड’ 30 मई 1826 को किसी हिंदी प्रदेश से नहीं बल्कि बांग्लाभाषी क्षेत्र कोलकाता से पं. युगलकिशोर शुक्ल द्वारा निकला गया। इसके बाद अनेक स्थानो से पत्र- पत्रिकाएं निकली जो कुछ दिन चलने के बाद अंग्रेज़ों के दमन के कारण बंद होती गयीं। परंतु यह क्रम जारी रहा और उनकी जगह दूसरी निकलती गयीं।
हिंदी पत्रकारिता के माध्यम से राष्ट्रीय एकता और राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन में सबसे बड़ा योगदान किया है भारतेंदु हरिश्चंद्र ने। उन्होंने हरिश्चंद्र चंद्रिका, हरिश्चंद्र मैगज़ीन, कविवचन सुधा, बाला बोधिनी नाम के पत्र 1867 और 1874 के बीच में शुरू किये। उनके प्रकाशनों में प्रमुख स्वर राष्ट्रचेतना, निर्भीकता और प्रगतिशील आदर्शों का हुआ करता था। भारतीय संस्कृति के प्रसार को राष्ट्रीयता की शर्त माना जाता था। उसके बाद राष्ट्रीय एकता और स्वराज के लिए तथा सामाजिक कुरीतियों के विनाश तथा पश्चिमी संस्कृति की नकल के विरुद्ध कई पत्रिकाएं निकलीं तो कंपनी सरकार इतनी भयभीत हो गयी थी कि उसने बिना लाइसेंस प्रेस रखना ग़ैरक़ानूनी घोषित कर दिया।
विदेशी शासन और संस्कृति के विरूद्ध पत्रकारिता की इस परंपरा को महामना मदनमोहन मालवीय, अमृतलाल चक्रवर्ती, प्रतापनारायण मिश्र, बालमुकुंद गुप्त, गणेशशंकर विद्यार्थी, बाबू श्रीप्रकाश, बाबूराव विष्णु पराडकर, माधवराव सप्रे, आचार्य नरेंद्र देव, जैसे महान संपादकों ने आगे बढ़ाया। उस समय तक पत्रकारिता एक मिशन मानी जाती थी। संपादकाचार्य बाबूराव विष्णु पराडकर कहा करते थे-सच्चे भारतीय पत्रकार के लिए पत्रकारी केवल कला या जीविकोपार्जन का साधन-मात्र नहीं होनी चाहिये। उसके लिए वह कर्तव्य-साधन की पुनीत वृत्ति भी होनी चाहिये क्योंकि अपने राष्ट्र में जन-जागृति का आवश्यक और अनिवार्य कार्य करना भारतीय पत्रकार का उत्तरदायित्व है। उसी समय कहा जाता था- पत्रकार बनने से पूर्व हमे समझ लेना चाहिये कि यह मार्ग त्याग का है, जोड़ का नहीं। जिस भाई या बहन को भोग-विलास की लालसा हो, वह और धंधे करे। तब राष्ट्रीय एकता को और मज़बूत करना पत्रकारिता की अनिवार्य शर्त थी। सौभाग्य से हिंदी एवं भाषायी पत्रकारिता तब से आज तक इस उद्देश्य को पूरा कर रही है। हाँ, यह भी सच है कि स्वतंत्रता के बाद पत्रकारिता ने व्यवसाय का निकृष्ट रूप लेना शुरू कर दिया। मालिकों का ध्यान सद्विचार प्रचार से हटकर अपनी प्रसार संख्या बढ़ाने पर लग गया ताकि ज्यादा से ज्यादा विज्ञापन बटोरे जा सके क्योंकि आज का युग भौतिकवाद का है।
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एक बात निश्चित रूप से कही जा सकती है कि पत्रकार समस्त समाज का दर्पण होता है। वह हमारे चहूँ ओर घट रही घटनाओं- दुर्घटनाओं को इस तरह से प्रस्तुत करता हैं कि हम उनके नकारात्मक अथवा सकारात्मक प्रभावों को समझ कर आवश्यकतानुसार बदल सके। ये जीवन के विभिन्न विचार धाराएँ प्रस्तुत करते है। अगर हम समाचार-पत्र न पढ़े तो ऐसा लगता है। कि हम दुनिया से कट से गए हैं। पत्र एक व्यक्ति की आवाज़ को एक देश तक पहँुचाते हैं, तो एक देश की आवाज को विश्व मंच तक भी पहुँचाते हैं। यदि ईमानदारी से विश्लेषण किया जाए तो कहा जा सकता है कि पत्रकार का काम कुछ मधुमक्खी जैसा है जो खूब परिक्रमा करती है, तरह- तरह के फूलों पर बैठकर रस चूसकर शहद बनाती है। यह शहद औषधि है तो मिठास से भरपूर टॉनिक भी है। नेपोलियन ने एक बार कहा थाः ‘मैं एक लाख संगीनों की अपेक्षा में दो समाचार-पत्रों से ज्यादा डरता हूँ।‘ उक्त टिप्पणी प्रजातंत्र का चतुर्थ स्तम्भ समझी जाने वाली पत्रकारिता के सन्दर्भ में उसकी शक्ति और महत्व को रेखांकित करती है। कितनी शक्ति सम्पन्न होती है। केवल स्वतन्त्रता संग्राम में ही नहीं आजादी के बाद भी प्रैस की भूमिका सजग प्रहरी की रही है।
आर्थिक असमानता के रहते भ्रष्टाचार के लिए अनुकूल वातावरण रहता है। इस कलंक का पर्दाफाश करने में पत्रकारों ने जोखिम उठाकर भी अपनी भूमिका का निर्वाहन किया है। दुर्भाग्य से बदलते परिवेश में पत्रकारिता के क्षेत्र में उन जुगाडू लोगों का प्रवेश हो गया है जो अपनी दुकान चमकाने के चक्कर में किसी भी हद तक जा सकते हैं। इसी कारण उसे अपयश मिल रहा है। आज कुछ तथाकथित पत्रकार अपने संबंधों से अर्जित शक्ति का दुरूपयोग करने से भी नहीं चूकते। वे शासन की चापलूसी करके सत्य को छिपाते है, समाज में अनावश्यक गलतफहमी पैदा करते हैं। आजकल चाटुकारों की भाँति अनेक लोग अपने छपास रोग के उपचार के लिए सदा पत्रकारों को घेरे रहते हैं। अगर यही हाल रहा तो आम आदमी का नेताओं की तरह पत्रकारों से भी विश्वास उठ जाएगा। आज जब एक पत्रकार किसी मीडिया संस्थान में कदम रखता है तो उससे अपेक्षा की जाती है कि वह किसी मिशन भावना से नहीं, अपने मालिक की अपेक्षाओं के अनुरूप कार्य करेगा। रोजी- रोटी देने वाले नियोक्ता के हितो के अनुरूप काम करना ही इस दौर की पत्रकारिता है। यहाँ इस बात को समझना आवश्यक है कि अगर मालिक की प्रतिबद्धता भी पत्रकारिता के प्रति है तब तो हालात सामान्य रहेंगे। पर आज इस बात को भी देखना होगा कि मीडिया में लगने वाले पैसे का चरित्र का किस तेजी के साथ बदला है। जब अपराधियों और नेताओं के पैसे से मीडिया घराने स्थापित होंगे तो स्वाभाविक तौर पर उनकी प्राथमिकताएं अलग होंगी।
पत्रकारिता का प्रथम व प्रमुख आदर्श यह है कि पत्रकार तो एक कुशल जासूस की भँति सबको जानता-पहचानता हो पर उसे कोई न जाने किन्तु आज का कटु सत्य यह है कि अनेक ऐसे लोग भी पत्रकारिता में प्रवेश कर गये हैं जो सबसे पहले स्वयं को प्रचारित करते हैं। और मौका मिलते ही भयादोहन करने लगते है। पत्रकारिता के पाँच प्रेरक तत्व हैं- अंग्रेजी भाषा के पाँच एफ-फर्स्ट, फेयर, फ्रैंक, फियरलैस, तथा फ्रीडम। फर्स्ट अर्थात् वह अपने पत्र के लिये ऐसे समाचार का प्रेषण सबसे पहले करे जो उसके ही पत्र में यथाशक्ति सबसे पहले छपे। फेयर अर्थात् जो भी समाचार दिया जाये सत्य, सही और तथ्यात्मक हो जिससे अधिकाधिक पाठकों में विश्वसनीयता बनी रहे। फ्रैंक अर्थात् स्पष्टवादिता में खतरे तो हैं पर इन खतरों को समाज का सजग प्रहरी-पत्रकार नहीं उठाएगा तो फिर कौन उठाएगा? इसलिए पत्रकार को सही और सत्य को स्पष्ट कहने-लिखने में किसी भी प्रकार की हिचक नहीं होनी चाहिए। फियरलैंस अर्थात् उसे निर्भीक और साहसी तो होना ही चाहिये जिसके अभाव में वह समाज की निष्ठापूर्वक सेवा नहीं कर सकेगा। फ्रीडम-अर्थात् पत्रकारिता पर किसी भी प्रकार का दबाव अथवा प्रभाव नहीं होना चाहिए। लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं है कि पत्रकार स्वच्छन्द होकर मनमानी करने लगे। इसके अतिरिक्त कुछ ऐसा भी है जिससे सदा दूर रहना पत्रकारिता की कसौटी है।
अंग्रेजी के तीन डब्ल्यू - वाइन, वोमैन, और वैल्थ हैं, ऐसा नहीं है कि पत्रकारिता में कुछ भी सकारात्मक बचा ही न हो। आज भी अनेक पत्रकार ऐसे है जो दिलोजान से अपने कर्तव्य के प्रति समर्पित हैं। समाज में जनजागरण का कार्य करने की महती जिम्मेवारी अपने कंधों पर लिए काम करने वाले किसी प्रशंसा की अपेक्षा भी नहीं रखते।
आम आदमी की अपनी समस्याओं के समाधान के लिए आवाज उठाने से डरता है। यदि कुछ हलचल करें भी तो उस आवाज को दबाने वालों की कमी नहीं है। अनेक बार उसे अनसुना भी कर दिया जाता है। ऐसे में निराश व्यक्ति को समाधान का मंच उपलब्ध करवाने वाले पत्रकार ही तो हैं। वह सूचनाएं उपलब्ध करवाता है तो साहित्य को भी सबल प्रदान करता है। मरती हुई कविताएं, दम तोड़ती कहानियां, लघुकथाएं भाषायी समाचार-पत्रों व पत्रिकाओं के सहारे ही तो सांस ले रही हैं। अर्थात् पत्रकारिता में अभी काफी कुछ बचा भी है। यदि संवेदना और सजगता के साथ मीडिया आगे आए तो ’मिशनरी पत्रकारिता’ का युग भी अनुपलब्ध होने से बच सकता है। उम्मीदों पर दुनिया कायम है तो हम आशा का दामन क्यों छोड़े। जो कुछ अच्छा हो रहा है उसका वंदन, अभिनंदन! हिन्दी पत्रकारिता दिवस के अवसर पर एक प्रश्न अपने आपसे करना समचिन होगा कि क्या हम लघु समाचार पत्रों के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वहन कर रहे हैं? यह भी ध्यान रहे- महफिल में अंधेरा नहीं है चिराग पे क्या-क्या बीती है, इसकी भी ख़बर रखों!
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