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भारत के प्रमुख महानगरो जैसे दिल्ली, मुम्बई, बैगलूरू, कोलकाता, लखनऊ में आये दिन तलाको की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है! अभी तक यह गलत धारणा थी कि तलाक की समस्या छोटे शहरो और बिना पढ़े-लिखे समाज में ज्यादा है परन्तु आंकड़े कुछ और ही इशारा करते है! एक सर्वे के अनुसार 1960 में जहा तलाक के वर्ष भर में एक या दो केस ही होते थे वही 1990 तक आते-आते तलाको की संख्या प्रतिवर्ष हजारो की गिनती को पार कर गयी! फैमली कोर्ट में 2005 में तो यह संख्या लगभग 7000 से भी अधिक हो गयी! आश्चर्य की बात यह तलाक लेने वालो में सबसे बड़ी संख्या 25-35 वर्ष के नव-दम्पत्तियो की है! ताज़ा आंकड़ों के मुताबिक इस समय दिल्ली में हर साल तलाक़ के आठ-नौ हज़ार मामले दर्ज हो रहे हैं! मुंबई में तलाक़ के मामलों की सालाना संख्या करीब पांच हज़ार है!
विशेषज्ञों का मानना है कि तलाक की संख्या में लगातार वृद्धि इसलिए भी हो रही है क्योंकि शहरी-समाज ने तलाकशुदा लडकियों को स्वीकार करना शुरू कर दिया है! ग्रामीण-समाज की तरह अब उन्हें गिरी हुई नजर से नहीं देखा जाता! आजकल डिंक्स (DINKS, अर्थात डबल इनकम नो किड्स) का चलन जोर पकड़ रहा है जिसके कारण शादियाँ टूटने के कगार पर पहुच जाती है! आज-कल कामकाजी जोड़े 10 से 14 घंटे घर से बाहर रहते हैं! ऐसे में, एक-दूसरे पर उनका इतना भरोसा बन नहीं पाता! उस पर भी अगर कोई अपने स्पाउस को किसी के साथ हँसी-मजाक करते देख ले, तो उस रिश्ते को टूटने से कोई नहीं रोक सकता! बढ़ते डिवॉर्स केसेज की वजहें ऊपर से भले ही अलग-अलग हों, लेकिन गहराई से देखने पर आपस में भरोसे का ना होना ही इसका सबसे बड़ा कारण है! समाजशास्त्रियों का तर्क है कि युवा जोड़े शादी से पहले तो एक-दूसरे पर बहुत भरोसा करते हैं, लेकिन बाद में वह तेजी से कम होने लगता है! रिश्तो में पारदर्शिता का होना बहुत जरूरी होता है! छोटी-छोटी बातों पर झूठ बोलना हो सकता है कि शुरुआती दौर में अच्छा लगे परन्तु कालांतर में यही तलाक का कारण भी बन सकता है! क्योंकि रिश्तों की बुनियाद सच्चाई पर रखनी चाहिए न कि झूठ की पुलंदियों पर! अतः बजाय छोटी-छोटी बातो पर झूठ बोलने के एक दूसरे को विश्वास में लेना बहुत जरूरी होता है!
IBTL Columns
देश के नगरों-महानगरों में रहनेवाले उन परिवारों की जिनमें कम से कम दो और ज्यादा से ज्यादा चार सदस्य होते हैं, जिन्हें हम न्यूक्लियर फेमिली अर्थात एकल परिवार की संज्ञा देते है जिसमें पति-पत्नी और उनके बच्चे रहते है का चलन काफी बढ़ा है! पति-पत्नी में ज्यादातर दोनों ही काम करते हैं! एकल परिवार के रूप में रहना इनका कोई शौक नहीं होता, अपितु मजबूरी होती है क्योंकि ऐसे परिवारों को अपनी निजी ज़िंदगी में किसी का हस्तक्षेप स्वीकार नहीं होता! अक्सर इन लोगों ने या तो प्रेम विवाह किया होता है या पांरपरिक शादी के चंद महीनों बाद ही एक-दूसरे को समर्पित हो जाते हैं! लेकिन चार-पांच साल गुजरते ही कभी बच्चे की परवरिश, कभी रहने-खाने के तौर-तरीके, कभी करियर तो कभी साफ-सफाई जैसी मामूली बातों पर तकरार का दौर शुरू हो जाता है! फुरसत मिलते ही दोनों झगड़ना शुरू कर देते हैं! फिर एक दिन ऐसी नौबत आ जाती है कि पति-पत्नी को न तो अपनी परवाह रहती है, न ही बच्चों की और वे अलग होने का बेहद तकलीफदेह फैसला कर बैठते हैं! पहले संयुक्त परिवारों में महिलाओं की उलझनें आपस में ही बात करके सुलझ जाती थीं! परन्तु आज एकल परिवारों के पास संयुक्त परिवारों जैसा कुशन नहीं है! पति-पत्नी को खुद ही एक दूसरे का पूरक बनना चाहिए वैसे भी मर्यादित नोक-झोक से तो प्यार ही बढ़ता है!
सोचने वाली बात यह है कि वे कौनसी परिस्थितियाँ होती हैं, जिनमें प्रकृति के सबसे सुन्दर रिश्ते में बंधने के लिये पैदा हुए स्त्री-पुरुष, जैसे ही पति-पत्नी के रिश्त में बंधते हैं, आपस में प्रेम करने के बजाय एक दूसरे के दुश्मन बन जाते हैं! इस कड़वी, किन्तु सच्ची बात को हमें खुले दिल, और खुले दिमांग से समझना होगा! भारत में विवाह एक धार्मिक संस्कार है, मोक्षप्राप्ति का एक सोपान है! परिणामतः विवाह को मात्र विलास–वासना का सूत्रपात नहीं है अपितु संयमपूर्ण जीवन का प्रारंभ भी माना गया है! मनुष्यों में पशु की भांति यथेच्छाचार न हो, इन्द्रिय-निग्रह और भोगभाव मर्यादित रहें, भावों में शुचिता रहे, धीरे-धीरे संयम के द्वारा मनुष्य त्याग की ओर बढे , संतानोत्पत्ति द्वारा वंश की वृद्धि हो, प्रेम को केन्द्र में रखकर उसे पवित्र बनाने का अभ्यास बढे, स्वार्थ का संकोच और परार्थ त्याग की बुद्धि जागृत होकर वैसा ही परार्थ त्यागमय जीवन बने इन्ही सब उद्देश्यों को लेकर भारत में विवाह को एक संस्था का दर्जा दिया गया था! तलाक जैसी इस वीभत्स समस्या से निजात पाने के लिए अब समाज को सोचने का समय आ गया है कही ऐसा ना हो कि पश्चिम का अन्धानुकरण करते-करते हम अपने बहुमूल्य जीवन को नरक बना दे!
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