मुंबई [ओमप्रकाश तिवारी]। सूचना अधिकार कानून [आरटीआइ] के जरिए जिस महाराष्ट्र में आदर्श सोसाइटी जैसा बड़ा घोटाला उजागर हुआ,..
अश्लील, असभ्य, अमर्यादित टिप्पणियां छात्रों का अनुशासन से दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं
अनुशासन के महत्व पर हजारों ग्रन्थ लिखे जा सकते हैं। इसे समाज और राष्ट्र की नींव कहा जा सकता है। अनुशासन संस्कृति का मेरूदंड है। सड़क हो या सदन, व्यवसाय हो या खेती, खेल का मैदान हो या युद्ध भूमि अनुशासन के बिना संभव ही नहीं है इस दुनिया की संरचना। अनुशासन विकास-पथ है तो अनुशासनहीनता विनाश को आमंत्रण। ये तमाम बातें सभी जानते हैं लेकिन अपनी नई पीढ़ी में अनुशासन के प्रति भाव जगाने की बात करने वाले लगातार कम हो रहे हैं जबकि युवाओं का व्यवहार अनुशासन से लगातार दूर होता जा रहा है। क्या यह सत्य नहीं कि एक आयु के बाद अनुशासन सीखना कठिन हो जाता है।
अनुशासन का पाठ बचपन से परिवार में रहकर सीखा जाता है। विद्यालय जाकर अनुशासन की भावना का विकास होता है। अच्छी शिक्षा विद्यार्थी को अनुशासन का पालन करना सिखाती है। सच्चा अनुशासन ही मनुष्य को पशु से ऊपर उठाकर वास्तव में मानव बनाता है। अनुशासन आज की सबसे महत्वपूर्ण सामाजिक तथा राष्ट्रीय आवश्यकता है क्योंकि यह लक्ष्यों और उपलब्धि के बीच का सेतु है। अनुशासन की वर्तमान स्थिति पर पिछले सप्ताह के स्वयं के कुछ अनुभवों की चर्चा करना चाहता हूँ।
IBTL Columns
मंगलवार प्रातः डीटीसी की बस में यात्रा की। क्रिबी प्लेस रेड लाइट पर बस चालक द्वारा रास्ता न दिए जाने से क्रुद कार सवार छात्रों ने अपने पिता से अधिक आयु के ड्राइवर को गंदी-गंदी गालियों से नवाजा। ड्राइवर ने अधिकतम संयम बनाए रखा तो मैंने उससे इसका कारण जानना चाहा। उसका उत्तर था- ‘यह रोज का काम है। ये रईसों के बच्चे हैं लेकिन मुझे तो अपने बच्चों का पेट भरना है। यदि मैंने कुछ कहा तो सारा जमाना विशेष रूप से मीडिया मुझे ही दोषी ठहरायेगा। सब ड्राइवरों को गलत साबित करने की होड़ में शामिल हो जाएगे।’
दिल्ली मैट्रों में युवाओं द्वारा शारीरिक चेष्टाएं, गलबहियां करना आम बात है। कानून मौन है तो व्यवस्था अंधी और बहरी। जो बोले वह ‘पिछड़ी’ हुई सोच वाला। सवाल उठाने वाले ‘मोरल पुलिस’ लेकिन चुपचाप सब देखते रहने वाले भी देश के जिम्मेवार नागरिक कैसे माने जा सकते हैं?
क्षेत्र के एक प्रतिष्ठित स्कूल के प्रबंधक के अनुसार ‘किशोर बच्चों का व्यवहार आश्चर्यजनक रूप से स्वच्छंद हो रहा है। जरा सा मौका मिलते ही ऐसी हरकते करते हैं जिन्हें देख-सुनकर भी शर्म आती है परंतु हम चाह कर भी उन्हें डांट तक नहीं कर सकते क्योंकि हमें निर्देश है कि दंड तो दूर, पागल, गधा भी कहना अपराध है। कुछ शैतान छात्र दूसरों को भी भड़काकर शिक्षा अधिकारियों तक झूठी शिकायतें पहुँचाने में माहिर हैं। पेरेंटस को बुलाओं तो वे भी पल्ला झाड़ देते हैं ऐसे में अनुशासन का क्या अर्थ शेष बचता है।’ यदि यह हालत निजी स्कूलों की है तो सरकारी स्कूलों का भगवान ही मालिक है। विशेष रूप से सहशिक्षा वाले विद्यालयों में स्थिति सचमुच गंभीर है। ऐसे में प्रश्न उठता है कि जब स्कूल प्रबंधन और शिक्षक ही भयभीत रहेंगे तो शिक्षा और अनुशासन की स्थिति कैसी होगी?
निजी स्कूल हर कमरे में सीसीटीवी लगाकर अपना कानूनी बचाव करना चाहते हैं लेकिन राष्ट्र की भावी कर्णधार युवा पीढ़ी के बचाव की चिंता किसी को दिखाई नहीं देती। बेशक इस स्थिति के लिए बेलगाम टीवी चैनलों को कोसा जा सकता है। अति कामुक दृश्य देखकर किशोर मन संस्कृति और संस्कारों की बजाय विकृति का शिकार हो जाता है। आज टीवी से सार्वजनिक स्थानों पर ‘सुरक्षित सेक्स’, कंडोम, हर विज्ञापन में नारी देह प्रदर्शित करने वाले आखिर क्या चाहते हैं? इस सारे परिदृश्य पर मौन व्यवस्था, तथा जनप्रतिनिधियों के विवेक पर प्रश्नचिन्ह लगना चाहिए या नहीं? आखिर कहाँ जा रहे हैं हम? यह सत्य है कि काम जीवन के चार महत्वपूर्ण स्तम्भों अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष में से एक है लेकिन इसका स्थान प्रथम नहीं है। पहले अर्थोपार्जन करने की योग्यता, क्षमता (पढ़ाई, ट्रेनिंग आदि) प्राप्त करें फिर धर्म (नियम, मर्यादा)का ज्ञान प्राप्त करे उसके बाद ही आप काम की कामना करें। यदि कोई पहले दो सोपानों को छोड़कर तीसरे की ओर कदम बढ़ाता है तो निश्चित मानिये कि वह आत्महंता है। चरित्रहीन है। क्या खोखले चरित्रवालों से कोई समाज किसी प्रकार की आशा कर सकता है?
क्या राष्ट्र की सुरक्षा और प्रतिष्ठा ऐसे लोगों के हाथों सुरक्षित है? क्या स्वच्छंद युवा पीढ़ी आने वाले अपने पारिवारिक संबंधों की मर्यादा की रक्षा कर सकेगी? क्या ये संबंध स्थायी रह पाऐगे? इस स्थिति के लिए अभिभावक भी कम दोषी नहीं हैं। जब बच्चे असफल होते हैं, तो उंगली उनकी परवरिश पर भी उठती है। विशेषज्ञों का मत हैं, ‘हर माँ-बाप को अपना बच्चा प्यारा होता है, पर इसका मतलब ये नहीं होता कि प्यार में अंधे होकर उसे संस्कार देना ही भूल जाएं। बच्चों को छूट देना चाहिए पर अनुशासन के साथ, क्योंकि जो अभिभावक बच्चों को अनुशासन के साथ आजादी देते हैं वे ही बच्चे संस्कारी व सभ्य होते हैं।
हाल ही हुए शोध से यह बात सामने आई है कि वही माता-पिता असंतुष्ट होते हैं जो बच्चों की आदतों को बचपन से अनदेखा करते हैं और उनकी गलतियों पर पर्दा डालते हैं। अभिभावकों को चाहिए कि बच्चों की गलतियों को अनदेखा न करें और न ही हंस कर टालें, बल्कि तुरंत उसे सुधारने का प्रयास करें। बच्चों में अनुकरण करने की प्रवृत्ति होती है। इसलिए बच्चे को अनुशासित करने के लिए आवश्यक है कि पहले आप स्वयं अनुशासित हो क्योंकि जैसा आप व्यवहार करेंगे आपका बच्चा उसका अनुशरण करता है। इसके कुछ अपवाद भी होते हैं जैसे अनेक अभिभावक ऐसे भी होते हो जो बेहद सज्जन होते है जबकि उनके बच्चें उनसे ठीक विपरीत। इस स्थिति के लिए भी अभिभावक स्वयं को पाक साफ नहीं ठहरा सकते। आखिर संयुक्त परिवार कहाँ गए?
क्या बच्चे को संसाधन ही चाहिए या दादा-दादी का भावनात्मक स्पर्श भी। आप बड़ों से अलग रहने को आजादी मानते हैं तो आपके बच्चें हर नियम कायदे को ताक पर रखना शान समझते हैं। यदि बच्चा बिगड़ा है तो जरूर आपकी लापरवाही रही होगी। आपने उसे जरूरत से ज्यादा संसाधन उपलब्ध करवाये। जेबखर्च बेलगाम रखा। स्कूल से निरंतर संवाद नहीं रखा, बच्चे की मित्र मंडली पर नजर नहीं रखी, इंटरनेट गतिविधियों का अनदेखा किया तो क्या आप स्वयं को निर्दोष ठहरा सकते हैं? अनुशासन ही एक ऐसा गुण है, जिसकी मानव जीवन में पग-पग पर आवश्यकता पड़ती है।
अतः इसका आरंभ जीवन में बचपन से ही होना चाहिए। इसी से ही चरित्र का निर्माण हो सकता है। अनुशासन ही मनुष्य को एक अच्छा व्यक्ति व एक आदर्श नागरिक बनाता है। वास्तव में अनुशासन-शिक्षा के लिए विद्यालय ही सर्वोच्च स्थान है। विद्यार्थियों को यहां पर अनुशासन की शिक्षा अवश्य मिलनी चाहिए। सरकार को स्कूली पाठ्यक्रम में नैतिक शिक्षा को महत्वपूर्ण स्थान देना चाहिए। भारतीय संस्कृति महान है लेकिन महानता का अर्थ यह भी नहीं कि उसकी तरफ से आंखें मूंदे रहने पर भी वह आपकी संतति की रक्षा करने में सक्षम है। अनुशासन को बंधन मानने वालों को चाहिए कि वे आकाश में तैरती रंग-बिरंगी पतंगें जो एक डोर से बँधी हवा में हिचकोले खाती हुई हमारा मन मोह लेती है, उसे जरा ध्यान से देखे। वे फिर समझ जाएँगे कि मात्र एक डोर का महत्व क्या है।
अनुशासन राष्ट्रीय जीवन का प्राण है। समाज में अव्यवस्था पैदा होती है।जो छात्र संस्कारवान नहीं, वह अनुशासनप्रिय नहीं हो सकता। अनुशासन से ही शिक्षा पूर्ण समझी जा सकती है। शिक्षा का उद्देश्य जीवन को अनुशासित बनाना है। एक आदर्श अनुशासित समाज पीढियों तक चलने वाली संस्कृति की ओर पहला कदम है।
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