स्थान: हस्तिनापुर | समय: लगभग ५१५० वर्ष
पूर्व
लाक्षाग्रह के बाद दुर्योधन को लगता था कि पांडव जल ..
शहीदों की चिताओं पर हर बरस खेलेंगे क्रिकेट, कैण्डल मार्च भी एक बहाना होगा...

हिमाचल के पालमपुर की सुन्दर पहाड़ियों में खेल कूद कर बड़ा हुआ था वो। एचपी यूनिवर्सिटी से बी.एससी किया और सीडीएस पास कर के भारतीय सैन्य अकादमी में चयनित हुआ और डेढ़ साल में कमीशंड हो कर कारगिल सेक्टर में तैनाती मिल गयी। लेफ्टिनेंट सौरभ कालिया–४ जाट रेजिमेंट इन्फंट्री – अपनी माता और सीएसआईआर में वैज्ञानिक पिता का गौरव। उसके पिता डॉ कालिया ने कहा था कि आज तो मुझे गर्व है कि मेरा बेटा जाट रेजिमेंट में शामिल हुआ, लेकिन एक दिन जाट रेजिमेंट को मेरे बेटे पर गर्व होगा।
कारगिल में तैनात हुए चार महीने भी नहीं बीते थे कि ३ मई १९९९ को दो लद्दाखी चरवाहों, ताशी नमग्याल और त्रेसिंग मोरूप ने भारतीय सेना को सूचित किया कि उन्होंने बाल्टिक सेक्टर में अजनबी लोगों को देखा है। इस सूचना पर सौरभ कालिया के नेतृत्व में ५ सैनिकों की पेट्रोल टीम काकसर क्षेत्र में भेजी गयी लेकिन दो बार बर्फ़बारी के कारण उन्हें लौटना पड़ा। फिर १५ मई को बजरंग पोस्ट पर निगरानी हेतु सौरभ कालिया के नेतृत्व में पेट्रोलिंग टीम भेजी गयी जिसमें भारतीय सैनिक अर्जुन राम, भंवर लाल, भीखा राम मूला राम एवं नरेश सिंह शामिल थे। अचानक वहाँ छुपे बैठे पाकिस्तानी घुसपैठियों ने उन पर अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी। लेफ्टिनेंट कालिया की टीम ने बहादुरी से मुकाबला किया लेकिन जल्दी ही उनका सीमित असला बारूद समाप्त हो गया और वो घेर कर पकड़ लिए गए।
कमरे में पिता द्वारा संजोयी यादें, जहाँ वह नित्य सुबह आते हैं ... (चित्र साभार कालिया परिवार एवं रीडिफ़.कॉम)
तिरंगे में लपेट कर जब सौरभ का शरीर घर आया तब ६००० लोग उस छोटे से पालमपुर में उसके अंतिम दर्शन को इकठ्ठा थे। वो मार्मिक समय जब भारतवासियों की संवेदना के ८०००० के लगभग पत्र और ईमेल और अनगिनत फोन कॉल्स सौरभ के पिता को मिले। लेकिन रोजमर्रा के जीवन में उलझे देशवासियों को आखिर कब तब सौरभ का बलिदान याद रहता। सौरभ के मोहल्ले का नाम बदल कर सौरभ-नगर हो गया। पालमपुर में एक 'सौरभ वन-विहार' नाम का स्मृति-वन भी बन गया, लेकिन उनके पिता अकेले रह गए। सौरभ के पिता तब से लेकर आज तक सौरभ और उन ५ सिपाहियों के विरुद्ध किए गए नृशंस युद्ध-अपराधों के विरुद्ध लड़ रहे हैं, उन पाकिस्तानियों को जेनेवा सम्मलेन के नियमों के उल्लंघनवश अंतर्राष्ट्रीय कानूनों के अंतर्गत सजा दिलवाने के लिए। तत्कालीन सरकार ने तुरंत पाकिस्तानी उच्चायुक्त को जेनेवा सम्मलेन के नियमों के उल्लंघन के लिए नोटिस दे दिया था। तत्कालीन विदेश मंत्री जसवंत सिंह ने पाकिस्तानी मंत्री के साथ भी ये विषय उठाया पर पाकिस्तान तब से इस बात से ही इनकार करता रहा है। भारत ने ये विषय संयुक्त राष्ट्र महासभा में और संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग में भी उठाया है, परन्तु अभी भी डॉ. कालिया को न्याय की प्रतीक्षा है। अब उन्होंने भारत के सर्वोच्च न्यायालय में याचिका डाली है ताकि न्यायालय केंद्र सरकार को निर्देश दे कि वो अंतर्राष्ट्रीय कोर्ट ऑफ जस्टिस में उनके शहीद बेटे का मामला उठाये, पर भारत सरकार ऐसा नहीं चाहती क्योंकि ये "द्विपक्षीय मामला" है।
भारत सरकार पाकिस्तान के साथ बातचीत से मामला सुलझाना चाहती है। भारत सरकार के ये अमन की आशा विचारधारा वाले प्रयास कितना रंग ला रहे हैं इसका दृष्टांत हमें अभी कुछ दिन पहले पाकिस्तान के आतंरिक मामले मंत्री ने भारत में आ कर ये कह कर दिया कि शायद सौरभ खराब मौसम के कारण मर गया हो (लिंक)। एक बयान पाकिस्तान के मंत्री ने दिया तो दूसरा हमारे अपने गृह मंत्री सुशील शिंदे ने। भारत सरकार को आतंकी हमलों में मरने वाले अपने नागरिकों की कितनी चिंता है, इसका प्रमाण हमारे अपने ही गृह मंत्री ने हमारी ही संसद में हम भारतीयों के ही हत्या का मास्टर प्लान बनाने, लाहौर में हज़ारों की भीड़ जुटा कर हम भारतीयों के ही विरुद्ध निर्णायक जिहाद छेड़ने का आह्वान करने वाले आतंकी हाफिज़ सईद के नाम के आगे बार बार श्री लगा कर दे दिया (लिंक)। जिन लोगों को श्री राम के नाम के आगे श्री लगाने में संकोच होता है, हाफिज़ सईद के नाम के आगे श्री लगाने, ओसामा के नाम के आगे जी लगाने में उन्हें न कोई संकोच होता है, और न कोई अफ़सोस।
न न... गुस्सा होने की बात नहीं है। हम भारतीय इसी लायक है। और हम इस लायक इस लिए हैं क्योंकि हम वो हैं जो आतंकी अबू ज़ुन्दाल द्वारा ये स्वीकारोक्ति (लिंक) करने पर भी कि आईएसआई ने "क्रिकेट कूटनीति" का इस्तेमाल भारत में आतंकी हमले करने की योजनाएँ बनाने में किया, और ये जानने के बाद भी कि २००५ में जब भारत ने क्रिकेट मैच देखने आने के लिए पाकिस्तानियों को वीजा दिया तो उसमें से अनेक पाकिस्तानी वीज़ा अवधि समाप्त होने पर भी देश नहीं लौटे और (लिंक) ऐसा ही कुछ पिछले साल विश्व कप में मोहाली मैच के बाद भी हुआ (लिंक), ये सब जानने के बाद भी हम फिर अमन की आशा में क्रिकेट खेलने के लिए उन्हें बुला बैठे।
सौरभ की शहादत पर उनके पिता को मिले ८०००० पत्र आज उन्होंने सौरभ के कमरे में सँभाल कर रखे हैं, सौरभ की यूनिफॉर्म, कैप, बैज, और उसकी कुछ तस्वीरों से सजा वो कमरा अब सौरभ के परिवार के लिए किसी मन्दिर से कम नहीं है। उनकी लड़ाई १३ साल से जारी है और हमारा खेल जारी है। बड़े बड़े कॉन्क्लेव कर के कारगिल करवाने वाले मुशर्रफ को हम दिल्ली में बुलाकर अपना अपमान स्वयं करते रहेंगें, पैसे खर्च कर उसे सुनने जायेंगें। २६/११ करवा के इतने लोगों को मारने वाले और भारत के विरुद्ध जिहाद के खुले आम ऐलान करने वाले हाफ़िज़ सईद को भूल कर कसाब की फाँसी पर खुश हो कर दिवाली मना लेंगें। पाकिस्तान के मंत्रियों को यहाँ बुला कर उन्हें हमारे शहीदों को अपमानित करने की छूट भी देते रहेंगें। और बार बार क्रिकेट टीम को बुला कर, उनके क्रिकेट प्रेमियों को मैच देखने आने का वीजा देकर, क्रिकेट भी खेलते रहेंगें। आखिर, यही तो हमारा तरीका है पाकिस्तान की आतंकी गतिविधियों में बलिदान देने वाले हमारे अपने भाइयों को याद रखने का।

पार्थिव शरीर को ले जाते हुए सैनिक - चित्र के साथ माताजी - एवं कुछ यादें (चित्र साभार कालिया परिवार एवं रीडिफ़.कॉम)
लेकिन सौरभ कालिया के पिता की १३ साल से चल रही लड़ाई किसी कैंडल मार्च की तरह नहीं है जो ४ दिन या एक सप्ताह में इंडिया गेट या जंतर मंतर के आस-पास क्रोध प्रदर्शन कर वापस चौकों-छक्कों के शोर में गम हो जाए। वो लड़ाई तो १३ साल से चल रही है और पाकिस्तान के आतंक के शिकार हुए कितने ही परिवार ऐसी लड़ाइयाँ लड़ रहे हैं – अकेले। हम उनके साथ नहीं हैं। वो तो हमारी दुआओं में भी नहीं हैं। हमारी दुआओं में भारत की क्रिकेट में जीत की दुआ है, सौरभ कालिया और उसके जैसे अनेक बलिदानियों के परिवारों को न्याय मिलने की दुआ नहीं है। सच तो ये है कि हमारे अपने दामन पर उस खून की छीटें हैं जो कारगिल में सौरभ कालिया और मुंबई में संदीप उन्नीकृष्णन और तुकाराम ओम्बले जैसे हमारे भारतीय सैनिकों/सुरक्षाकर्मियों ने हमें बचाने के लिए बहा दिया, लेकिन हमारे हाथों कभी कभार जो प्रोटेस्ट की मोमबत्तियाँ आती हैं, उनमें इतनी रौशनी नहीं कि हमें वो खून के छीटें दिखाई भी दे जाएँ। “शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले” तो बीते जमाने की बात हो गयी, अब तो शहीदों की चिताओं पर क्रिकेट खेलने का चलन है। और भगवान न करे पर इस बीच यदि कोई और आतंकी हमला हो गया, तो भी क्या, न तो हमें नए शहीदों के खून के छीटें हमारे दामन पर दिखेंगें, न ही प्रोटेस्ट के लिए मोमबत्तियाँ कम पड़ेंगी। शायद अमन की आशा बनाये रखने के लिए वही एक तरीका हो।
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