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जुलाई के तीसरे सप्ताह में शुरू हुए असम दंगों की आग अब तक ठंड़ी नहीं हुई है। ऐसा भी नहीं कि यह आग असम तक ही सिमित रही है, इसका धुँआ पूरे देश में उठ रहा है। मुंबई के आजाद मैदान में जो तांडव हुआ, तालिबानी धमकियों के बाद उत्तर-पूर्व के लोगों का जिस तरह से पलायन हुआ, जिस तरह से लखनऊ में पत्रकारों की धुनाई हुई, उससे यह स्पष्ट है कि मामला खत्म नहीं हुआ है। ऐसे में देश के वामपंथी किस्म के ‘बुद्धिजीवी’ वर्ग में जो चुप्पी ‘साम्प्रदायिक सौहार्द’ बनाये रखने के नाम पर छाई हुई है वह वास्तव में छलावा है।
बोडोलैंड में हुई हिंसा, देश में (विशेषकर उत्तर भारत) सैकड़ों वर्षों से चले आ रहे हिन्दू-मुस्लिम दंगों की एक कड़ी भर नहीं है। यह ताजिया या विजयादशमी के जुलुस के समय होने वाली हिंसा नहीं है। यह भावनात्मक कम और ठोस कारणों से उपजी हिंसा अधिक है। यहाँ मुद्दा जमीन का है, अवसरों का है और अवैध घुसपैठ के कारण स्थानीय संस्कृति पर हुए हमले का है। यहाँ मुद्दा आत्मसम्मान का है। यह स्पष्ट है कि ‘साम्प्रदायिक सौहार्द’ चुप रहने से नहीं, समस्या के स्थायी एवं न्यायपूर्ण समाधान से ही बन सकेगा।
इन परिस्थितयों में बोडोलैंड फिर कब जल उठे, कब उसकी आग असम के दूसरे क्षेत्रों तथा पश्चिम बंगाल के सीमावर्ती जिलों में फ़ैल जाये, कब अलगाववादी संगठन इस अवसर का उपयोग भारत विरोधी भावनाओं को भडकाने के लिए करें, इसका क्या भरोसा?
दिल्ली, मुंबई में बैठे लोगों को ऐसा लगता है कि बांग्लादेश के अवैध घुसपैठ का अर्थ सस्ते मजदूरों की उपलब्धता, छोटे अपराधों की संख्या में वृद्धि और अवैध झोपड़पट्टियों की संख्या में वृद्धि भर है। लेकिन बेरोजगारी, गरीबी, बुनियादी सुविधाओं की कमी और जनसँख्या के ऊँचे घनत्व के दबाव से जूझ रहे असम और पश्चिम बंगाल में इसका अर्थ जीवित रहने के सिमित मौकों में भी सेंधमारी है।
वैसे तो मुस्लिम संगठनों की मांग है कि बोडो स्वायत्तपरिषद के प्रावधान को ही खत्म किया जाये। लेकिन वे उन जिलों को तो बोडोलैंड से बाहर रखने के लिए कृतसंकल्प हैं जो अब बोडो बहुल नहीं रहे। प्रथमदृष्टया यह उचित मांग लगती है लेकिन सोचिए कि अवैध घुसपैठ से पहले जनसांख्यिकी संतुलन को बदल दिया जाये और फिर उसी को आधार बनाकर बोडोलैंड को लगातार छोटा करते रहें तो चार जिलों वाले इस स्वायत्तपरिषद को समाप्त होने में भला कितना समय लगेगा? बोडो संस्कृति का क्या होगा? कैसे बचेगी उनकी भाषा? क्या अपने ही देश में वे शरणार्थी बनकर रहेंगे?
उत्तर-पूर्व में ‘मुख्यभूमि’ के लिए यह शिकायत रही है कि उनकी सोच और संवेदना कोलकाता तक आकर समाप्त हो जाती है और उत्तर-पूर्व का दर्द उन्हें उद्वेलित नहीं करता। ऐसेमें यह समय है उनके साथ खड़े होने का और उनके उचित मांगों को समर्थन देने का। बोडोलैंड की आवाज दिल्ली के सत्ता के गलियारों में नहीं पहुँच पाती है। ऐसे में यह जरूरी है कि आप उनकी आवाज़ बने।
# जब असम से खूंखार उग्रवादी आर्ट ऑफ़ लिविंग, बंगलुरु पहुंचे
# बोडो जनजाति और बांग्लादेशी मुस्लिम घुसपैठिये : असम एक चेतावनी
आग बुझी नहीं है, असम एक ज्वालामुखी पर बैठा है और सरकार का यही रवैया रहा तो इस बार अकल्पनीय हिंसा का शिकार होगा असम। इस आग के पूरे उत्तर-पूर्व में फैलने की भी पूरी संभावना है। और यह दावा कोई नहीं कर सकता कि उसका असर दिल्ली, मुंबई और दूसरे महानगरों को नहीं जलाएगी (आजाद मैदान, मुंबई में हुई हिंसा, उत्तर-पूर्व के निवासियों का पलायन और लखनऊ में पत्रकारों की नमाजियों द्वारा जबरदस्त धुनाई ने भविष्य की तस्वीरें स्पष्ट कर दी हैं)। इस बार हमें विस्मृति का शिकार नहीं होना है।
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