नई दिल्ली स्थित चीनी राजदूत चांग यान ने बड़ी हिमाकत कर दी। दिल्ली की एक पांच सितारा होटल में उसने एक भारतीय पत्रकार को कह ..

देशभक्ति घोड़े पर सवार है। और हो भी क्यों न - परिस्तिथियाँ ही ऐसी हैं। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट कहती है कि भारत में दो तिहाई जनसँख्या के पास शौचालय तक नहीं हैं पर योजना आयोग के दफ्तर में ३५ लाख शौचालय की मरम्मत में खर्च हो जाते हैं। हर आधे घंटे में एक किसान आत्महत्या कर लेता है, पर करोड़ों टन अनाज गोदामों में पड़ा सड़ रहा होता है। मजहब के आधार पर आरक्षण का विरोध करने वालों को साम्प्रदायिकता का तमगा पहना दिया गया है और हर बात में हिन्दुओं और हिन्दू संस्कृति को गाली देने वाले और अल्पसंख्यकों के तलवे चाटने वाले सेकुलरिस्म का बोर्ड छाती पे लटकाए घूमते हैं। देश के दुश्मनों को सरकारी दामाद बना कर बैठा दिया गया है और संन्यासियों के विरुद्ध सीबीआई, आयकर विभाग और प्रवर्तन निदेशालय सबको छोड़ दिया जाता है। ऐसी दशा हो तो खून तो खौलेगा ही। आक्रोश निर्बलों को न्याय दिलाने के लिए क्रांति लाता है लेकिन क्रोध मनुष्य की बुद्धि को हर कर विनाश की ओर धकेल देता है। यदि ये देशभक्ति का घोड़ा वल्गा-रहित हो, बेलगाम हो, तो कब कहाँ दौड़ लेगा, कह नहीं सकते। अतिवाद की आँधी सही-गलत, सच-झूठ का भेद भुला कर सबको बहाने पर तुली-सी लगती है। और इसी लिए चेताने की आवश्यकता है। आईए २ उदाहरणों से समझने की कोशिश करते हैं।
पहला उदाहरण हमारी राष्ट्रपति प्रतिभा देवी-सिंह पाटिल का। महामहिम के महामहिम बनने से पहले उनके विरुद्ध कई आरोप लगे थे जिसमें उन्होंने अपने पद का दुरूपयोग अपने भाई को हत्या के मामले में बचाने का भी था। एक सहकारी बैंक जो वो चलाती थी, उसके सम्बन्ध में भी गड़बड़ियों के आरोप (लिंक) थे। न्यायालय में इस सन्दर्भ में याचिका भी दायर हुई थी और वादी ने अपील की थी कि राष्ट्रपति बनने से पहले ही उसकी सुनवाई हो। तब के जी बालाकृष्णन सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस थे और न्यायालय ने आनन-फानन में सुनवाई करने से मना कर दिया था। परिणामत: वे निर्विघ्न राष्ट्रपति बन गयीं। राष्ट्रपति भवन पहुँचने के बाद कैसे उन्होंने सरकारी यात्राओं में सैकड़ों करोड़ फूँक दिए, कैसे अपने पूरे परिवार को सरकारी खर्चे पर लेकर छुट्टियाँ मनाई और ज़मीन कब्जाने और फिर दबाव में वापस करने जैसे अनेक उदाहरण हमारे सामने हैं। इसी बीच लगभग दो वर्ष पहले एक हिंदी समाचार पत्र ने समाचार छापा कि प्रतिभा पाटिल इंदिरा गाँधी की रसोई में काम करती थी। पता नहीं किस आधार पर पत्र ने ये समाचार छापा पर कुछ समय से सोशल मीडिया पर उन्हें "परांठे वाली" नाम से पुकारा जाने लगा है। अब उनके कैरियर पर दृष्टि डालें तो दिखता है कि उन्होंने राजनीति-शास्त्र में परास्नातक किया है और एलएलबी कर के वकालत भी की है जलगाँव जिला न्यायालय में। २७ साल की उम्र में वो विधायक बन गयी थी और फिर लगातार ५ विधानसभा चुनाव जीते। उसके बाद राज्यसभा में और फिर लोकसभा में भी संसद रही। फिर ८ वर्ष के अंतराल के बाद राजस्थान की राज्यपाल बना दी गयीं। अर्थात ऐसा कोई कालखंड नहीं मिलता जब वो दिल्ली में रहकर इंदिरा गाँधी की रसोई में नौकरी कर सकती हो। पर "परांठे वाली" शब्द चल गया तो फोटोशॉप में फोटो भी तैयार हो गयी - चूल्हे पर बैठी प्रतिभा ताई की। अतिवाद की आँधी में १० सच में एक झूठ का घाल-मेल - तमाम सच्चे मुद्दे गौण हो गए - कोई उस हत्या की बात नहीं करता जिसके आरोपी अपने भाई को उन्होंने बचाया, कोई उस बैंक घोटाले में शिकार बने लोगों की बात नहीं करता, न सैकड़ों करोड़ सरकारी रुपयों की ही जो उनकी विदेश यात्राओं पर खर्च हुए - पर उन परांठों की, जिनके बनाने का कोई प्रमाण नहीं - उनकी बात चटकारे ले ले कर करने में "देशभक्त" जनता लगी हुई है।
तो समस्या क्या है अगर कुछ झूठ बोल दिया। समस्या इतनी ही है जितनी दूध के भरे गिलास में स्याही की एक बूँद गिरने से होती है। समस्या ये है कि दूध पीने लायक नहीं रहता। "अश्वत्थामा हतो" का उदाहरण देना व्यर्थ है - प्रतिभा पाटिल को परांठे वाली बताने या सचिन तेंदुलकर को कांग्रेसी सांसद बताने से कोई धर्म की रक्षा नहीं हो रही, उलटे जो काम के मुद्दे थे वो गौण हो जा रहे हैं। और फिर - एक झूठ अपने साथ सच को भी ले डूबता है और आरोप लगाने वाले की विश्वसनीयता तो नष्ट कर ही देता है। जब सेकुलर ब्रिगेड ने आरोप लगाया कि एहसान जाफरी की दोनों बेटियाँ जल के मर गयी और तुरंत उसका खंडन आ गया कि जाफरी की तो एक ही बेटी थी और वो अमेरिका में रहती थी - अब सेकुलर ब्रिगेड कुछ सच भी बोलेगी तो भी उसे संदेह से देखना स्वाभाविक है। जो बात सेकुलर ब्रिगेड के लिए सच है, वही भगवा ब्रिगेड के लिए भी सच है। एनडीटीवी स्पेन की गोस्पेल ऑफ़ चैरिटी से चलता है - ये हमने पचासों पोस्ट में देखा है पर स्पेन की गोस्पेल ऑफ़ चैरिटी को गूगल भी नहीं जानता - सर्च कर के देखिये ज़रा। भारत के मीडिया घरानों के हिन्दू विरोधी होने की बात सही है पर इस एक झूठ के कारण सेकुलारी विचारधारा वाले मित्रों ने बाकी सच बातों को भी मानने से इनकार कर दिया।
पर ये कोई आज की बात भी नहीं है। भारत भावुक देश रहा है और इसीलिए कवियों ने जब इतिहास भी लिखा तो उसमें अतिशयोक्ति और रूपक में डुबो दिया। उसमें कुछ गलत भी नहीं पर क्या उसी कारण तो नहीं हमारी रामायण महाभारत सबको कपोल कल्पना बता दिया गया? एक वाल्मीकि की रामायण - उसके सामानांतर अलग अलग रामायण खड़ी हो गयी तो संकीर्ण स्वार्थों वाले लोगों को कहने का अवसर मिल गया कि राम काल्पनिक थे - तभी तो उनकी १०० कहानियाँ और हर कोई दूसरी से अलग। दसों दिशाओं में अपना प्रभुत्व रखने वाले दशानन रावण के हमने सच मच के १० सर और २० हाथ मान लिए - अब कोई भी तार्किक दिमाग वाला मनुष्य इसे ठुकराएगा ही। पार्वती जी ने अपने शरीर के मैल से गणेश जी को बना कर पहरा देने बिठा दिया और शिव जी ने आकर उनका सर काट दिया और फिर हाथी का सर लगाया - इस बात से हमने जाकिर नायक जैसे शैतान को शिव-पार्वती के अस्तित्व और धारणा को ही तो झूठी मूर्खतापूर्ण परिकल्पना सिद्ध करने का अवसर दिया? हनुमान जी को हमने पूंछ वाला बन्दर ही बना दिया। इसी के उदाहरण हमारे पुराण हैं। पुराणों में इतिहास के स्मृतियाँ संरक्षित हैं - ऐसा नवभारत टाईम्स एवं जी न्यूज़ के कर्ता-धर्ता रहे डॉ. सूर्यकांत बाली की पुस्तक भारत गाथा पढ़ने से ज्ञात होता है - लेकिन पुराणकारों ने सच और मिथ्या का ऐसा घालमेल किया कि महर्षि दयानंद जैसे विद्वान् को उसे रद्दी की टोकरी सिद्ध करने के लिए लेखनी चलानी पड़ी - सत्यार्थ प्रकाश का एकादश समुल्लास पढ़ लीजिये।
सत्य में कल्पना और झूठ की मिलावट का ये परिणाम होता है। झूठ के साथ मिल कर सच भी सच नहीं रह जाता। स्याही मिले दूध में दूध की क्या गलती थी - पर अब तो वो भी त्याज्य हो गया न ? हंस जैसा नीर-क्षीर विवेक कितने लोग रखते हैं जो सच और झूठ की एक एक बूँद अलग कर सकें? इसलिए अतिवाद में पड़ कर नए नए झूठ गढ़ लेने की उत्कंठा से बचने की आवश्यकता है। सच की लक्ष्मण रेखा का सम्मान होना ही चाहिए - इसी में सच का हित है। आशा है सन्देश का मंतव्य स्वीकार जायेगा और इसे उदाहरणों में कमियाँ ढूँढ कर नकारा नहीं जायेगा।
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