गुजरात में भारतीय जनता पार्टी की जीत एक संयोग नहीं है। गुजरात के मुसलमानों ने केवल विकास यात्रा को ही नहीं अपितु विचारया..

"सबका साथ सबका विकास" का मंत्र देकर अपने ३ दिवसीय सद्भावना उपवास के साथ अपने राजनैतिक कौशल का प्रदर्शन कर चुके नरेन्द्र मोदी ने मुंबई राष्ट्रीय कार्यकारिणी की समापन रैली में जिस प्रकार का सिंहनाद [ यू-ट्यूब विडिओ लिंक ] किया, उससे राष्ट्रीय राजनीति और मीडिया के गलियारों में एक बार फिर कंपन अनुभव हो रहा है। मीडिया का भरोसा करना मूर्खता है। एक कार्यक्रम के दौरान जब नरेन्द्र मोदी एवं आडवाणी के बीच बैठे गुजरात प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष भाषण देने के लिए खड़े हुए, तो उनके खड़े होने से खाली हुयी कुर्सी की फोटो खींच कर मीडिया ने हेडलाइन बनाई थी कि आडवाणी और मोदी के बीच में (प्रधानमन्त्री की) कुर्सी की दीवार है। पेड मीडिया अंतर्कलह की कितनी भी कहानी कहे, आज का सच यही है कि समूची भाजपा को बिना किसी विशेष प्रयास के एक मंच पर लाकर खड़ा कर देने का अद्भुत प्रयोग वो सद्भावना उपवास के दौरान करके दिखला चुके हैं और ऐसा करने का कौशल रखने वाले वो पार्टी में अकेले नेता हैं, जिन्हें उत्तर में प्रकाश सिंह बादल जैसे सहयोगी और दक्षिण में जयललिता जैसे संभावित सहयोगियों का स्वभाविक समर्थन प्राप्त है और जो येदियुरप्पा एवं शिवराज सिंह चौहान जैसे क्षेत्रीय क्षत्रपों के भी चहेते हैं। परन्तु सबसे बड़ी बात ये है कि मोदी भाजपा के कार्यकर्ताओं में तो नयी जान फूंकते ही हैं, राजनीति में नाम मात्र की रूचि रखने वाला लेकिन अपने देश के ‘लिविंग स्टैण्डर्ड’ को अच्छा बनते देखना चाहने वाला पढ़ा लिखा शहरी युवा भी आज मोदी में भारत का भविष्य देख रहा है।
और मोदी ने राजनीति के धुरी को भी खिसकाने के सार्थक प्रयास किए हैं। जिस राजनीति को कांग्रेस और अनेक क्षेत्रीय दलों ने वोट बैंक का संकीर्ण एवं राष्ट्र-विभाजक घृणित खेल बना दिया था, वो सबका साथ, सबका विकास का मंत्र देकर उसे ध्वस्त करने में लगे हैं और उस में उन्हें कुछ सफलता भी मिली है। ये एक सत्य है कि मोदी अपनी छवि के विपरीत एक अतिवादी नेता नहीं हैं। बहुत कम लोग जानते होंगे पर २००८ में मोदी ने गांधीनगर में ८० मंदिरों का अनधिकृत अतिक्रमण हटाने के आदेश दिए थे। ८० मंदिर आंशिक अथवा पूर्ण रूप से ध्वस्त कर दिए गए थे। स्पष्ट है कि प्रखर हिंदुत्व से कहीं ऊपर राष्ट्र के नियम मोदी के लिए महत्व रखते हैं। यहाँ एक प्रश्न यह भी उठता है कि वीएचपी के प्रतिरोध को छोड़ कर सामान्य रूप से इतने मंदिर तोड़े जाने पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई थी। क्या मीडिया इतना ही शांत रहता यदि ध्वस्त किये गए भवनों में मस्जिद अथवा चर्च शामिल होते? वस्तुतः यह एक प्रश्न कहीं न कहीं ये विकृत पंथनिरपेक्षता को उजागर करता है। ये प्रश्न उसी परंपरा पर चोट करता है जो हज यात्रियों को सब्सिडी देती है और अमरनाथ यात्रा पर कर लगाती है, और अमरनाथ यात्रा की अवधि ४ महीने से घटाते घटाते ३९ दिन पर ले आती है। ये उन प्रयासों की श्रंखला पर भी चोट करता है जो रामसेतु तोड़ने के लिए केन्द्रित होते हैं, राम के अस्तित्व पर प्रश्न चिह्न लगाने वाला एक शपथ पत्र सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल करते हैं, और दूसरी ओर वक्फ बोर्ड के इमामों को सरकारी पेंशन देने की संस्तुति करते हैं। मोदी का वो उपवास इसी "सेकुलर पाखण्ड" का इंद्रजाल काटने के लिया छोड़ा गया पहला अमोघ अस्त्र था।
मीडिया के अनवरत अथक दुष्प्रचार एवं राजनैतिक दलों के जी तोड़ प्रयासों एवं मोदी विरोधी तीस्ता ब्रिगेड के कब्र खोदने जैसे घृणित कुकृत्यों के बाद भी मोदी के लिए मुस्लिम समर्थन बढ़ रहा है, क्योंकि गुजरात के मुस्लिमों को मोदी ने अकाल से बचाया है। उन्हें चौबीस घंटे बिजली उपलब्ध कराई है और उन्हें इस काबिल बनाया है कि भारत के किसी और राज्य की तुलना में आज वो सबसे अधिक संपन्न हैं। और इसके बाद भी मोदी ने भारत की आत्मा हिंदुत्व को छोड़ा नहीं है। महाराणा प्रताप के जन्म वर्षगाँठ पर दिया गया उनका भाषण [ यू-ट्यूब विडिओ लिंक ] उसी देश-भक्ति की गंगाजल धारा के समान था, जिसकी आज हमें आवश्यकता है।
चाहे गोधरा हत्याकांड को दुर्घटना सिद्ध करने के लिए मुस्लिम वोटों के ठेकेदार लालू यादव द्वारा बनायीं गयी बनर्जी समिति का न्यायालय द्वारा असंवैधानिक कह कर निरस्तीकरण हो, या तीस्ता सीतलवाड़ के २२ झूठे साक्षी प्रस्तुत करने का रहस्योद्घाटन, या एसआईटी की बार बार जाँच के बाद भी संदेह का आधार तक न मिलना और उलटे एसआईटी का स्पष्ट कहना कि मोदी ने दंगे रोकने में प्रभावी भूमिका निभायी, या मल्लिका साराभाई के आरोपों का स्वयं उन्ही के विधिवक्ताओं द्वारा खंडन या फिर संजीव भट के विवादस्पद कथनों का उन्ही के सहयोगियों द्वारा खंडन, एक एक घटना मोदी के विरुद्ध किये षड्यंत्रों का पटाक्षेप करती गयी है, एवं मोदी की यश गाथा का उषागान तीव्र से तीव्रतर होता गया है।
भारत की वर्तमान दुर्दशा, जो केवल पेट्रोल के आसमान छूते मूल्यों, १ डॉलर के मुकाबले ५६ रुपये तक गिर चुके रुपये, ३२ रूपया रोज खर्च करने वाले "धनवान" व्यक्तियों से सुसज्जित "निर्धनता-रेखा", भ्रष्टाचार के विरुद्ध अन्न-जल त्याग कर बैठे वृद्ध अन्ना, योग-आयुर्वेद से आगे निकल व्यवस्था परिवर्तन की अलख जगाने निकले दमितों के योद्धा बाबा रामदेव, तक ही सीमित नहीं है, अपितु निश्चित रूप से असीम कष्ट से कराह रही भारत माँ के आर्तनाद की मर्मभेदी प्रतिध्वनि है। इस पुकार का उत्तर देकर उस कष्ट से मुक्त कराने के लिए भारत माँ के कोटि कोटि पुत्र आज निस्सहाय होकर भले बैठे प्रतीत होते हो, परन्तु वे इतना विवेक और श्रद्धा तो रखते ही हैं कि समय आने पर राजनीति के अश्वों की वल्गा सुयोग्य हाथों में सौंप कर भारत वर्ष के रथ को प्रगति और उत्थान के पथ पर अग्रसर करना सुनिश्चित करना नहीं भूलेंगे। निश्चित रूप से पांचाली बना कर भारत माँ का अपमान करने वाले दुशासनों को दण्डित करने के लिए, भ्रष्टाचारी कौरवों का विनाश करने के लिए जिस पांचजन्य और गांडीव के समागम की आवश्यकता है, वो गत वर्ष ४ जून और १७ सितम्बर को अलग अलग अपनी अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं, और अब बार बार टंकार दे रहे हैं। कुरुक्षेत्र सजने को आतुर है। प्रतीक्षा, धर्म-युद्ध की है, एक युद्ध, मोदीत्व बनाम विकृत धर्मनिरपेक्षता और "सेकुलर पाखण्ड"। विजयी वही होगा, जिसे भारत माँ की सच्ची चिंता होगी, क्योंकि उसे ही भारत माँ का आशीर्वाद प्राप्त होगा।
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