काले धन पर संसद में चली बहस कितनी सतही थी? इस बहस से यह पता नहीं चलता कि आखिर काला धन है क्या? हम किस धन को काला कहें और..
इस विषय को समझने के लिए सर्वप्रथम हम यह जान लेते हैं कि
मृत्यु के पश्चात क्या होता है ? सर्वप्रथम हम अध्यात्म शास्त्र
अनुसार मानव शारीर की संरचना लेते हैं | अध्यात्मशास्त्र अनुसार आत्मा
के साथ मानव शरीर के चार भाग होते है - पहला है स्थूल देह
अर्थात शरीर का वह भाग जिसे हम इन आँखों से देख सकते हैं और शेष तीन
भाग सुक्ष्म होता है और वह है मनोदेह अर्थात हमारा मन, कारण देह
अर्थात हमारी बुद्धि और महाकारण देह अर्थात हमारा अहम् | इन सब को
मिलकर हमारा मानव देह बनता है | मृत्यु के पश्चात स्थूल देह
पंचतत्त्व में विलीन हो जाता है और और आत्मा के साथ मन, बुद्धि एवं
अहम् के एकत्रित स्वरुप जिसे हम लिंगदेह कहते हैं वह मृत्यु उपरांत
पाप और पुण्य और आध्यात्मिक स्तर के आधार पर आगे की यात्रा की ओर बढ़ता
है | सुक्ष्म जगत में लिंगदेह के आगे के प्रवास हेतु उसका हल्का होना
आवश्यक है और उस जगत में शारीरिक कौशल्य, धन, दौलत ऐश्वर्य ,
मान-मर्यादा इत्यादि के लिए कोई स्थान नहीं होता और मृत्यु उपरांत आगे
की यात्रा के लिए हमारी सात्त्विकता और साधना का ही महत्व होता है |
लिंगदेह में जितने अधिक विषय वासना के और अहम के संस्कार होंगे उतना
ही अधक वह लिंगदेह जड़ हो जाता है और उसे सूक्ष्म जगत में आगे के
प्रवास में अड़चन आने लगती है इसे ही अध्यात्मिक अर्थ में लिंगदेह को
गति प्राप्त न होना कहते हैं | यदि लिंगदेह द्वारा अत्यधिक पाप किया
गया हो तो उसे नरक के कष्ट झेलने पड़ते हैं उसके विपरीत यदि लिंगदेह
ने सत्कर्म कर पुण्य अर्जित की हो और साधना कर अच्छे अध्यात्मिक स्तर
को प्राप्त किया हो तो वह उच्च लोक के प्रवास के लिए जाने लगती है |
लिंगदेह में विषय वासना एवं अहम् के संस्कार जितने कम होते हैं उनका
अध्यात्मिक प्रवास उतना ही अधिक द्रुत गति से आगे के लोकों में होता
है | मृत व्यक्ति की जीवात्मा किसी विषय से आसक्त हो अटक न जाए इस लिए
हिन्दू धर्मं में श्राद्ध का विधान बताया गया है |
श्राद्ध के विधान से मृत व्यक्ति की जीवात्मा यदि कसी कारणवश किसी
विषयवासना में अटक गई हो तो श्राद्ध से उत्पन्न शक्ति उस जीवात्मा को
आगे को लोकों में जाने की शक्ति प्रदान करती है | यहाँ एक मुद्दा और
स्पष्ट करना चाहूंगी कि संतो के श्राद्ध करने की आवश्यकता नहीं होती
कारण संतो के मन बुद्धि एवं अहम का लय हो गया होता है अतः मृत्य के
उपरांत स्थूल शरीर पञ्च तत्त्व में समाहित हो जाता है और आत्मा जो
ब्रह्मान्द्र या सहस्रार चक्र से निकलती है वह कुछ क्षणों में
ही ब्रह्माण्ड में विलीन हो जाती है अतः संतो के श्राद्ध की आवश्यकता
नहीं होती | इसलिए कई बार आपने देखा होगा कि संत के स्थूल देह को भूमि
के अन्दर डालकर उनकी समाधी बना दी जाती है मात्र साधारण व्यक्ति के
शरीर को जलाया जाता है | मृत्यु पूर्व एवं मृत्यु उपरांत भी संत के
शरीर से चैतन्य प्रक्षेपित होता है और संत परोपकार की प्रतिमूर्ति
होते हैं उनके भक्तों को उनके शरीर से मृत्यु उपरांत भी चैतन्य मिलता
रहे इस हेतु उनकी समाधी बनायीं जाती है | कबीरदास जी ने संत की इस
प्रकृति के बार मैं एक अत्यंत सुंदर दोहावली लिखी है -
वृक्ष कभी नहीं फल भकै नदी न संचे नीर | परमारथ के कारणे साधून धरा
शरीर ||
अर्थात संत मृत्यु से पहले और उपरान्त दोनों ही समय अन्यो के कल्याण
के विषय में सोचते हैं | कभी-कभी कुछ संत अपने शरीर को जंगल में
जानवरों के पास फेकने के लिए कहते तो कुछ जल में प्रवाहित करने के लिए
कहते हैं, संतो की देहबुद्धी पुर्णतः नष्ट हो गयी होती है अतः मृत्यु
उपरांत भी उनका शरीर भी जानवरों के ही भोजन के काम आ जाये ऐसे उनकी
विचार प्रक्रिया होती है | तो कुछ संत अपनी भक्ति की इच्छा का मान रख
हिन्दू धर्म अनुसार अपने शरीर की अंत्येष्टि करने की अनुमति देते हैं
| एक मुद्दा ध्यान में रखना चाहिए उच्च कोटि के संतो के अधीन में
मृत्यु होती है और साधारण व्यक्ति मृत्यु के अधीन में होता है | संत
और एक साधारण व्यक्ति में मुख्य अंतर यही है | अतः संतो का देह त्याग
होता है मृत्यु नहीं होती अर्थात वे जब चाहे तब मृत्यु का आलिंगन कर
सकते हैं अतः कुछ संत पद्मासन लगा कर देह त्याग करते हुए पाए गए हैं |
संतों के मृत्यु से पहले हार पहनाने के पीछे भी यही शास्त्र है उनका
अहम् नष्ट हो चूका होता है | संतो के देह त्याग उपरांत चित्र हम इस
कारण से लगा कर रखते है क्योकि उनके चित्र से चैतन्य प्रक्षेपित होता
हैं |
इन मुद्दों से यह समझ में आ गया होगा की हम जो संतो के साथ करते हैं
वह साधारण मनुष्य के साथ नहीं कर सकते | अतः साधारण मनुष्य का श्राद्ध
करना परम आवश्यक है | सनातन धर्म अनुसार उनेक शरीर की अंत्येष्टि
पूर्ण विधि विधान अनुसार होना भी उनके मृत्यु उपरांत आगे की गति हेतु
परम आवश्यक है |
साभार सुश्री तनुजा ठाकुर
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