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प्रियंका के प्रचार करने पर राहुल बौने दिखे, उत्तर प्रदेश
भारतीय लोकतंत्र में राजघराने भी बनते जा रहे हैं। नंबर एक
राजघराना का दर्जा जिस नेहरू वंश को मिल गया है, उसमें थोड़ी सी भी नई
सुगबुगाहट को सुर्खियों में जगह अक्सर मिल जाती है। इसमें कोई नई बात
नहीं है। लोग इसके आदी हो गए हैं। पर मीडिया है जो अपना काम करता रहता
है। कई साल बाद प्रियंका बाडेरा रायबरेली पहुंचीं तो पत्रकारों ने खबर
बनाने के लिए उन्हें घेरा और चंद सवाल पूछे। पत्रकार जानते हैं, और वह
भी जिले पर रहने वाला पत्रकार तो कुछ ज्यादा ही जानता है कि खबर आखिर
बनेगी कैसे? उसी हिसाब से सवाल पूछे जाते हैं। जो पूछा जाता है और
जिससे पूछा जाता है वह वही जवाब देगा जो पूछा गया है। ऐसे मौके पर कही
गई बात के मनमर्जी अर्थ भी निकाले जाते हैं। यही राजघराने के लक्षण भी
हैं।
संभव है कि किसी उत्सुक कांग्रेसी ने यह सवाल पुछवाया हो, क्योंकि वह
स्वयं तो ऐसी हिम्मत नहीं कर सकता। सवाल था कि क्या प्रियंका रायबरेली
और अमेठी के अलावा भी चुनाव प्रचार के लिए जाएंगी? इसका सरल सा उत्तर
उन्होंने दिया कि ‘अगर भईया राहुल ने कहा तो वह दूसरे क्षेत्रों में
प्रचार के लिए जाएंगी।’ इस पर लखनऊ से दिल्ली तक अर्थ निकाला जाने लगा
कि प्रियंका सक्रिय राजनीति में आ रही हैं। कुछ ने तो यही मान कर उनके
आ जाने से उत्तर प्रदेश में क्या-क्या असर हो सकता है, इसका पूरा
लेखा-जोखा तैयार कर लिया। उन लोगों ने प्रियंका के उस कथन को दबा ही
दिया जो बड़े काम का है, लेकिन वह निष्कर्ष में रुकावट डालता है।
मीडिया का यह रवैया वैसा ही है जैसा सोनिया गांधी के बारे में उसने
1998 में बना लिया था। उसी समय सोनिया गांधी ने सीताराम केसरी को
धकिया कर अध्यक्ष पद हासिल कर लिया था। उससे कांग्रेस समर्थक मीडिया
में कांग्रेसियों से अधिक उत्साह जग गया था। वे समझते थे और यही
समझाते भी थे कि सोनिया गांधी के चुनाव प्रचार में उतरने से पूरे देश
में कांग्रेस की लहर चल पड़ेगी। इसकी वास्तविकता चुनाव के नतीजे से
सामने आई। लोगों ने देखा कि सोनिया गांधी के प्रचार से कांग्रेस की
लोकसभा में सीटें उतनी भी नहीं आ पाईं, जितनी कि सीताराम केसरी की
अध्यक्षता में आई थीं।
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इसे नजरअंदाज कर मीडिया इस बार प्रियंका के आभामंडल को जगा रहा है।
वह इसका उल्लेख भी नहीं करना चाहता कि ‘अभी कुछ तय नहीं हुआ है।’ यही
प्रियंका ने रायबरेली में कहा। अगर इसे ख्याल में रखें तो बात दूसरी
तरफ चली जाती है कि आखिर तय किसे करना है? क्या प्रियंका कांग्रेस में
हैं? क्या कांग्रेस किसी परिवार की जागीर है, जिसके बारे में मुखिया
फैसला करेगा? रायबरेली में बहुत कुछ इस बार घटित हुआ। इसकी किसी को
उम्मीद नहीं रही होगी। प्रियंका का वहां की महिलाओं ने आक्रोश भरा
विरोध किया। इसके दो कारण थे। पहला कि शीना होमटैक्स की कर्मचारियों
का भविष्य खतरे में है। इस कंपनी को वहां लाने वाली प्रियंका ही थीं।
दूसरा कारण है कि प्रियंका वहां तभी दर्शन देती हैं जब चुनाव होते
हैं। इससे भी लोग कुपित हैं, मानो उन्हें कृतदास समझ लिया गया है।
रायबरेली के लोगों ने इस तरह की सोच को अपना अपमान समझा है। विरोध इसी
लिए सामने आया। मीडिया ने इसे भी थोड़ा दबाया और दिखाया कि प्रियंका
गुस्सैल समूह को शांत करने में कुशल हैं। यह बात तो कहीं आई ही नहीं
कि रायबरेली के लोगों ने प्रियंका के लिए अपने हिसाब से नया नाम चुन
लिया है। वे उन्हें जिस नाम से अब पुकारने लगे हैं, वह है- मेंढक।
रायबरेली में मेंढक के दो मायने हैं। एक, वह चुनाव क्षेत्र जहां से
इंदिरा गांधी चुनाव लड़ी थीं और दूसरा, वह जीव-जन्तु जो हर बरसात में
अपने आप बहुतायत में प्रकट हो जाता है। यह हमारी और आपकी मर्जी है कि
प्रियंका को क्या समझें।
जो लोग प्रियंका को राजनीति में उतारने पर अमादा हैं, वे इसके खतरे से
अनजान लगते हैं। लेकिन सोनिया परिवार इसे बखूबी जानता है कि जिस दिन
प्रियंका सक्रिय होंगी, तब वह कच्चा चिट्ठा बाहर निकलेगा, जिसका संबंध
राबर्ट बाडेरा से है। सुरेश कलमाड़ी जेल से बाहर आ गए हैं और वे भले
ही अपना मुंह न खोलें, पर चुप रह कर भी दस जनपथ की परेशानी बढ़ा
देंगे। एक तर्क और है कि प्रियंका के प्रचार करने पर राहुल बौने
दिखेंगे। इसकी गवाही अतीत की वे घटनाएं दे सकती हैं जिनका संबंध
सोनिया गांधी से है। सोनिया गांधी के जीवनी लेखकों ने अपनी किताब में
उसे भरपूर उभारा है। एक ही घटना काफी है। वह 24 दिसंबर, 1995 की है।
जब सोनिया गांधी ने अपनी चुप्पी तोड़ी और पी.वी. नरसिंह राव पर अपने
आक्रोश को खुलेआम प्रकट किया। सोनिया गांधी के जीवनी लेखकों ने इसे
दर्ज किया है और लिखा है कि प्रियंका ने ही उन्हें तब हिम्मत दिलाई
थी। ऐसे अवसरों पर राहुल की पहल कदमी के कोई उदाहरण नहीं मिलते।
- रामबहादुर राय
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