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यह कहना अतिश्योक्ति न होगा की भारतवासी अपने जीवन में सर्वाधिक
सम्मान भारतीय सेना के जवान को देते हैं और यह सत्य भी है कि माँ
भारती के सच्चे सपूत भारत की रक्षा के लिए अपने प्राणों तक को
न्यौछावर कर अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए उदाहरण प्रस्तुत करते हैं
कि अपने जीवन से बढ़कर हम अपने देश एवं देशवासियों कि सुरक्षा के लिए
कर्तव्यबद्ध हैं अपने प्राणों कि आहुति देने वालों में से एक हैं
२६/११ को हुए मुंबई हमलो के ३१ वर्षीय अमर शहीद मेजर संदीप
उन्नीकृष्णन।
१५ मार्च, १९७७ को जन्मे मेजर संदीप भारतीय सेना के एनएसजी कमांडो थे।
२६/११ को उन्हें ५१ ताज महल होटल के बचाव का दायित्व सौंपा गया।
उन्होंने १० कमांडो के दल के साथ होटल में प्रवेश किया व छठे तल पर
पहुँचे जहाँ उन्हें महसूस हुआ कि आतंवादी तीसरे तल पर छुपे हैं
आतंकवादियों ने कुछ महिलाओं को बंधक बनाया हुआ था। दरवाजा तोड़ कर
उन्होंने गोलीबारी का सामना किया जिसमें कमांडो सुनील यादव घायल हो
गए। मेजर संदीप ने अपने प्राणों की चिंता न करते हुए सुनील को वहाँ से
निकाला, लगातार गोलीबारी का उत्तर देते रहे और भागते हुए आतंकवादियों
का पीछा भी किया। इस बीच उन्हें पीछे से गोलियों से भून डाला गया और
उन्होंने बाद में दम तोड़ दिया। मेजर संदीप को मरणोपरांत उनके सहस के
लिए अशोक चक्र से सम्मानित किया गया।
आतंकवाद का जो विभत्स चेहरा समस्त विश्व ने देखा उसके बाद लगा कि शायद
बरसों तक यह पीड़ा हमारे दिलों से नहीं मिट सकेगी लेकिन आज समस्त
मुंबई में सामान्य है, सिवाय शहीदों के परिवारों को छोड़कर, उन
निर्दोष नागरिकों के परिवारों को छोड़कर। आम जन-जीवन का सामान्य होना
उसकी मजबूरी है लेकिन राजनीतिक स्तर पर और प्रशासनिक स्तर पर जो
दृढ़ता और मुस्तैदी सामने आनी थी वह नहीं आई। राजनीतिक और प्रशासनिक
शीथिलता ना सिर्फ अखरने वाली है बल्कि चुभने वाली भी है। यही वजह है
कि शहीदों के परिवार से यह आह निकलती है कि क्यों हुए शहीद हमारे सपूत
ऐसे कृतघ्न लोगों के लिए?
राजनेताओं ने तो शहीदों की शहादतो पर भी सियासत करना भी नहीं छोड़ा,
मेजर संदीप उन्नीकृष्णन के घर पर जब अच्युतानन्दन जी उनके पिता के पास
संवेदना व्यक्त करने (?) गए थे, उस समय मेजर के घर की चेकिंग खोजी
कुत्तों द्वारा करवाई गई थी, जिस कारण बुरी तरह से भड़के हुए
शोक-संतप्त पिता ने मुख्यमंत्री अच्युतानन्दन को दुत्कार कर अपने घर
से भगा दिया था…। धिक्कारे जाने के बावजूद अच्युतानन्दन का बयान था कि
“यदि वह घर संदीप का नहीं होता तो उधर कोई कुत्ता भी झाँकने न जाता…”।
बाद में माकपा ने मामले की सफ़ाई से लीपापोती कर दी थी और मुख्यमंत्री
ने शहादत का सम्मान (?) करते हुए, मेजर संदीप उन्नीकृष्णन के परिजनों
को केरल सरकार की तरफ़ से 3 लाख रुपए देने की घोषणा की थी।
उनके चाचा ने सरकार से शहीदों को सम्मान दिलाने के लाखों प्रयासों
किये परन्तु निराशा ही हाथ लगी एवं उन्होंने ०४ फरवरी २०११ को संसद
भवन के बाहर आत्मदाह कर लिया।
क्या चाहता है आखिर एक शहीद का परिवार इस देश से? इस देश के लोगों से?
महज इतना ही कि उनके सपूतों की शहादत मजाक बन कर ना रह जाए। उनकी
शहादत से कोई नेता खिलवाड़ ना कर सकें। उनके नाम पर सम्मान और गौरव से
हमारा मन श्रद्धानत हो जाए। कैसे बिलखता होगा उन माता-पिता का हृदय
जिनके बेटों को अभी 40-50 वर्ष और जीना था। जीवन के कितने ही सुंदर
रंगों से वंचित रह गए उन बेटों की स्मृतियाँ हर माह दस्तक देते
त्योहारों पर घर के हर कोने से गूँजती होगी। ईमानदारी से जवाब दीजिए
कि पिछले दिनों के कितने त्योहारों पर एक बार भी, एक पल के लिए भी
हमारा मन शहीदों के लिए द्रवित हुआ? क्यों हम इतने संवेदनहीन और
स्वार्थी हो गए हैं कि जब तक हमारा अपना इन हादसों का शिकार ना हो
मानवता के धरातल पर हमारा मन गीला नहीं होता?
उस मुंबई हमले पर २४ घंटे ब्रेकिंग न्यूज दिखाने वाली मीडिया को २६/११
के दिन के अतिरिक्त शायद ही कभी हमारे जवानों की याद आये और आखिर
मीडिया ही क्यूँ, जब हमारे देश के जाँबाज सिपाही जिनकी शहादत पर हमारी
आँखें तो नम होती हैं पर सोच के स्तर पर हमे मन में वैसी हलचल नहीं
मचती जैसी मचनी चाहिए।
शहीदों अब नहीं लगेंगे तुम्हारी चिताओ पर मेले ...
वतन पर मिटने वालों का क्या अब कभी कोई निशा होगा ?
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