दिल्ली और मुंबई के ताजा आतंकी हमलों ने हमारे सुरक्षा तंत्र की कमजोरी को फिर उजागर कर दिया है। कड़े व प्रभावी कदमों को ले..
भारतीय भाषाओँ के विरुद्ध षड़यंत्र : भारत का सांस्कृतिक पतन
ऋषि भूमि, राम भूमि, कृष्ण भूमि, तथागत की भूमि... भारत के
गौरवशाली अतीत को यदि शब्दों में एवं वाणी में कालांतर तक भी बांधने
का प्रयास किया जाए तो संभव नहीं है। वर्तमान में पश्चिम का अंधानुकरण
करने से जो भारत का सांस्कृतिक पतन हुआ है वह निश्चय मानिए आपके
प्रयासों से समाप्त होगा। इस पश्चिम के अंधानुकरण एवं मानसिक
परतंत्रता के रोग के उपचार हेतु इसका कारण प्रभाव आदि जानना भी नितांत
आवश्यक है।
भारत पर प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से २०० से २५० वर्षों तक अंग्रेजो
का शासन रहा, अल्पावधि तक फ्रांसीसियों एवं डच आक्रान्ताओं का प्रभाव
भी रहा। भारत के कुछ भूभागो केरल, गोवा (मालाबार का इलाका आदि ) पर
तो, पुर्तगालियों का ४००–४५० वर्षों तक शासन रहा।
भारत पर ७–८ शताब्दी से आक्रमण प्रारंभ हो गए थे। मोहाम्मदबिन कासिम,
महमूद गजनवी ,तैमूर लंग, अहमद शाह अफदाली, बाबर एवं उसके कई वंशज इन
आक्रांताओंके का भी शासनकाल अथवा प्रभावयुक्त कालखंड कोई बहुत अच्छा
समय नहीं रहा भारत के लिए, सांस्कृतिक एवं सभ्यता की दृष्टि से।
भिन्न भिन्न आक्रांताओ के शासनकाल में भारत में सांस्कृतिक एवं सभ्यता
की दृष्टि से कुछ परिवर्तन हुए। कुछ परिवर्तन तो तात्कालिक थे जो समय
के साथ ठीक हो गए, लेकिन कुछ स्थाई हो गए। जब तक भारत पर आक्रांताओ का
शासन था तब तक हम पर परतंत्रता थी। सन १९४७ की तथाकथित सत्ता के
हस्तांतरण के उपरांत शारीरिक परतंत्रता तो एक प्रकार से समाप्त हो गई
किंतु मानसिक परतंत्रता से अब भी हम जूझ रहे है। यह अपनी सभ्यता एवं
संस्कृति के लिए जुझारूपन हमारे रक्त में है, जो कभी सपाप्त नहीं हो
सकता। इसी के कारण हमारी वर्तमान संस्कृति में अधकचरापन आ गया
है "न पूरी ताकत से विदेशी हो पाए, न पूरी ताकत से भारतीय हो पाए, हम
बीच के हो गए, खिचड़ी हो गए" !!
भारतीय भाषाओँ के विरुद्ध एक षड़यंत्र -
एक सबसे बड़ा विकार स्थानीय भाषा एवं बोली के पतन के रूप में आया। हम
आसाम में, बंगाल में, गुजरात में, महाराष्ट्र में रहते है वही की बोली
बोलते है, लिखते है, समझते है परंतु सब सरकारी कार्य हेतु अंग्रेजी
ओढ़नी पड़ती है। यह विदेशीपन, अंग्रेजीपन के कारण और भी भयावह स्थिति का
तब निर्माण होता है जब नन्हे नन्हे बालको को कान उमेठ-उमेठ कर
अंग्रेजी रटाई जाती है। सरकार के आकड़ो के अनुसार जब प्राथमिक स्तर पर
१८ करोड़ भारतीय छात्र विद्यालय में प्रथम कक्षा में प्रवेश लेते है तो
अंतिम कक्षा जैसे उच्च शिक्षा जैसे अभियांत्रिकी (इंजीनियरिंग),
चिकित्सा (मेडिकल), संचालन (मैनेजमेंट) आदि तक पहुँचते-२ तो
१७ करोड़ छात्र/छात्राएं अनुतीर्ण हो जाते है, केवल १ करोड़
उत्तीर्ण हो पाते है। भारत सरकार ने समय समय पर शिक्षा पर
क्षोध एवं अनुसंधान के लिए मुख्यतः तीन आयोग बनाए दौ. सि. कोठारी
(दौलत सिंह कोठारी), आचार्य राममूर्ति एवं एक और... सभी का यही मत था
की यदि भारत में अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा व्यवस्था न हो अपितु
शिक्षा स्थानीय एवं मातृभाषा में हो तो यह जो १८ करोड़ छात्र है, सब के
सब उत्तीर्ण हो सकते है, उच्चतम स्तर तक |
विचार कर देखे शिक्षा मातृभाषा में नहीं होने का कितना अधिक
दुष्परिणाम उन १७ करोड़ विद्यार्थियों को भोगना पड़ता है, इनमें से आधे
से अधिक तो शुरुआत में ही बाहर हो जाते कोई पांचवीं में तो
कोई सातवीं में कुछ ८-८.५ करोड़ विद्यार्थी इस व्यवस्था के कारण सदैव
के लिए बाहर हो जाते है। यह कैसे दुर्व्यवस्था है जो
प्रतिवर्ष १७ करोड़ का जीवन अंधकारमय बना देती है। अगर आप प्रतिशत में
देखे तो ९५% सदैव के लिए बाहर हो रहे है। यह सब विदेशी भाषा को ओढ़ने
के प्रयास के कारण, बात मात्र विद्यार्थियों के अनुत्तीर्ण होने की
नहीं अपितु व्यवस्था की है।
दुर्भाग्य की पराकाष्ठा तो देखिये की जब कोई रोगी जब चिकित्सक के पास
जाता है तो वह चिकित्सक उसे पर्ची पर दवाई लिख के देता है, मरीज उसे
पढ़ नहीं सकता वरन कोई विशेषज्ञ ही पढ़ सकता है। कितना बड़ा
दुर्भाग्य है उस रोगी का की जो दवा उसको दी जा रही है, जो वह अपने
शरीर में डाल रहा है, उसे स्वयं न पढ़ सकता न जान नहीं सकता की वह दवा
क्या है ? उसका दुष्परिणाम क्या हो सकता है उसके शारीर पर ?
यदि वह जोर दे कर जानना भी चाहे तो डाक्टर उसे अंग्रेजी भाषा में बोल
देगा, लिख देगा उसे समझने हेतु उसे किसी और विशेषज्ञ के पास जाना
होगा।
क्योँ बंगाल में, असम में, गुजरात में, महाराष्ट्र में, हिंदी
भाषी राज्यों आदि में दवाइयों का नाम क्रमषः बंगला में, असमिया में,
गुजरती में, मराठी में, हिंदी में आदि में नहीं है। यह
बिलकुल संभव एवं व्यावहारिक है। संविधान जिन २२-२३ भाषओं को मान्यता
देता है उनमें क्योँ नही ? राष्ट्रीय भाषा हिंदी (हम मानते है) में
क्यों नहीं जिसे समझने वाले ८० से ८५ करोड़ है और तो और सरकार ने नियम
बना रखा है दवाइयों के नाम लिखे अंग्रेजी में, चिरभोग (प्रिस्किप्शन)
लिखे अंग्रेजी में, छापे अंग्रेजी में आदि। जिस भाषा (अंग्रेजी) को
कठिनाई से १ से २ प्रतिशत लोग जानते है।
आगे पढ़ें : विद्यालयों से लेकर न्यायालयों तक अंग्रेजी भाषा की
गुलामी
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