ज्ञान के आभाव में दम तोड़ती परम्पराएँ

Published: Thursday, Jul 19,2012, 13:54 IST
Source:
0
Share
indian culture, indian rituals, lok geet, ancient text, bharat sanskruti, vande matru sanskruti, vms

कहते है जितनी विविधताएँ हमारे देश में हैं, उतनी विश्व के किसी भी देश में नहीं है। बोली, भाषा, खानपान, वेशभूषा से लेकर गीत, संगीत तक  की परम्पराएँ। हर तीन कोस पर बोली और भाषा के साथ इस देश में चेहरे-मोहरे भी बदलने लगते हैं। भारत की इसी गौरवशाली संस्कृति और समृद्ध परम्पराओं के कारण हम सबसे वैविध्यपूर्ण देश के निवासी होने पर गर्वित महसूस करते हैं। लेकिन जैसे जैसे भूमंडलीयकारण और वैश्वीकरण का प्रभाव इस देश पर पड़ा हैं वैसे वैसे भारतवासी अपनी जड़ो और अपने मूल से विमुख होते चले गए।

वैश्वीकरण की प्रक्रिया के कारण देश में पाश्चात्य शैली के प्रभाव में हम भारतीयों का  अपनी शैली, वेशभूषा, बोली सभी से सम्बन्ध टूट रहा है। वैश्वीकरण की संकल्पना का अर्थ अपनी जड़ों और अपने मूल से टूटना नहीं था, वरन अपने आधार से जुड़े रहते हुए दूसरे देश की संस्कृति के बारे में जानकारी हासिल कर स्वयं की जानकारी समृद्ध करना था। यदि आज की स्थिति पर गौर किया जाये तो एक खास मिशन या कहे की साजिश के तहत कुछ खास विचारों और योजनाओं को दूसरे देशो में संप्रेषित कर निजी फायदा उठाने का भरसक प्रयास किया जा रहा है।
इस भूमंडलीकरण के कारण जितना लाभ हमारे देश को हुआ है उससे कहीं अधिक नुकसान उठाना पड़ा है। विश्व में सबसे ज्यादा नुकसान उन्हीं तीसरी दुनिया के देशों को हुआ है जो विकसित होने की आकांक्षा पाले बढ़ रहे थे। विकसित देशों ने अपने विचारों को इन तीसरी दुनिया के देशों में एक तरफा तरीके से स्थापित किये या कहें तो थोपे हैं।

वैश्वीकरण के कारण जितना हम बदले या पश्चिमी देशों से प्रभावित हुए हैं। उतना अन्य देश भारत की संस्कृति या मान्यताओं से प्रभावित नहीं हुआ है। दरअसल हम भारतीय अन्धानुकरण की बीमारी से ग्रस्त हैं। एक खास विचार हमारे देश में या कहे की सम्पूर्ण विश्व में फैलाया जा रहा है की जो पश्चिमी देशों में हो रहा है वही विकसित होने और महान होने की एक मात्र निशानी है। इस बात को अपने जीवन में धेय वाक्य मानकर अपने मूल से हटते चले गए। अपने लोकगीतों की परम्पराओं की ही बात करें तो शादियों में गाये जाने वाले गीत ही हमारे देश से कहीं गायब होते जा रहे हैं। महानगरों में तो यह साफ साफ दिखता था लेकिन छोटे नगरों और कस्बों के परिवारों में भी कोई इस गीतों को याद करना या इसके पीछे के भावों को समझना नहीं चाहता है।

घर की बेटियां जिन पर यह दायित्व होता है वही इस से विमुख हो रही है। कहीं न कहीं इसके पीछे की विचार कि यह पिछड़ेपन की निशानी है पूरी तरह से जिम्मेदार है। हमारे देश में हमेशा से गीतों कि एक पूरी परंपरा रही है। जन्म से लेकर मरण तक गाये जाने वाले ये लोक गीत इस नए 'कथित वैज्ञानिक युग' में कहीं न कहीं दम तोड़ रहे हैं।

अब न तो अधिकांश परिवारों में इन गीतों को लेकर कोई दिलचस्पी है और नहीं परिवार अपने बच्चो को इन परम्पराओं को सिखाना चाहते हैं। धीरे धीरे एक पीढ़ी के बाद दूसरी पीढ़ी को सिखाये जाने वाले ये लोक गीतों की श्रंखला अब टूट रही है। जब नयी पीढ़ी अपनी पुरानी पीढ़ी से सीखेगी नहीं तो भविष्य में आने वाली पीढ़ी को क्या देगी।

हमारी मानसिकता कहीं न कहीं पाश्चात्य शैली को विकसित और श्रेष्ठ मान चुकी है। अब ये सोचने कस काबिल विषय है कि क्या दूसरे देश से सीखने या जानने का अर्थ अपनी जड़ों और मूल को भूलते हुए, पाश्चात्य देशों का अन्धानुकरण हो चुका है। अब हम इटली के पिज्जा और मैक-डी बर्गर से परिचित नयी पीढ़ी से हम परम्पराओं और मान्यताओं कि बातें करना बेमानी होगा।

आज फिर हमें अपने मूल में लौटने और झाँकने की आवश्यकता है। क्योकि  अपनी संस्कृति की ओर लौटना कदम पीछे हटाने नहीं बल्कि अपने आधार को मजबूत बना कर अपने विचारों और संस्कृति को मजबूती से स्थापित करना है।

- समर्थ सारस्वत

Comments (Leave a Reply)

DigitalOcean Referral Badge