अनादि काल से अब तक विश्व में समग्र मानव कल्याण के लिए बहुत से धर्मों, दर्शनों, राजनैतिक व्यवस्थाओं का प्रादुर्भाव हुआ है..
मुस्लिम वोट के लालच में देश को बांटने की संप्रग सरकार की शर्मनाक साजिश
इस वर्ष के अंत में देश के पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा
चुनावों में अल्पसंख्यकों के मत बटोरने के उद्देश्य से संप्रग सरकार
ने जिस तरह से खुलेआम मुस्लिम तुष्टीकरण का अभियान शुरू किया है उसके
कारण देश और समाज के टुकड़े-टुकड़े होने का खतरा पैदा हो गया है। ऐसा
प्रतीत होता है कि कांग्रेस और उसकी सहयोगी पार्टियों को देश की
एकता और सांप्रदायिक सद्भाव से कोई सरोकार नहीं है।
भारत को विभाजित करने की जो नींव रखी जा रही है वह बेहद खतरनाक है।
अगर देश नहीं चेता तो भविष्य में इसके खतरनाक परिणाम होंगे।
हाल में ही केंद्रीय गृह सचिव आर.के. सिंह ने सभी राज्यों को यह
निर्देश दिया है कि देश के मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में मुस्लिम पुलिस
अधिकारी नियुक्त किए जाएं। उन्होंने इस निर्देश को जारी करते हुए
राजिंदर सच्चर कमेटी की सिफारिशों का उल्लेख किया है। उन्होंने यह
तर्क दिया है कि इससे 'दबे-कुचले और अन्याय के शिकार' मुसलमानों में
आत्मविश्वास पैदा होगा, वे मुस्लिम पुलिस अधिकारी के सामने बे-खटके
अपनी समस्याएं रख सकेंगे।
तुगलकी फरमान: गृहसचिव ने सभी राज्यों को यह निर्देश
दिया है कि वे हर छह महीने के बाद केंद्र सरकार को यह सूचना दें कि इन
निर्देशों को कहां-कहां लागू किया गया है। साफ है कि संप्रग सरकार
सांप्रदायिक आधार पर पुलिस बल को बांटना चाहती है। क्या देश के हिंदू
नागरिकों को इस बात की शिकायत नहीं हो सकती कि मुसलमान पुलिस
अधिकारियों से उन्हें न्याय मिलने वाला नहीं है? इस बात की क्या
गारंटी है कि थानों में तैनात मुस्लिम पुलिस अधिकारी सांप्रदायिक
दृष्टिकोण नहीं अपनाएंगे? अभी तक पुलिस से यह अपेक्षा की जाती रही है
कि वह निष्पक्ष रूप से अपने कर्तव्य का निर्वाह करेगी। मगर अब सरकार
उनमें सांप्रदायिकता का विष भर रही है। वैसे भी मुस्लिम वोटों के मोह
में बौराई केंद्र सरकार इस तथ्य को भूल गई है कि शांति व्यवस्था
राज्यों का अधिकार क्षेत्र है। राज्यों के अधिकारों का हनन करने का
केंद्र सरकार को क्या अधिकार है?
जहां तक सच्चर कमेटी का संबंध है तो केंद्र सरकार ने
इसका गठन ही इस उद्देश्य से किया था कि मुसलमानों का तुष्टीकरण किया
जा सके। इस कमेटी के प्रमुख न्यायमूर्ति राजिंदर सच्चर भले ही दिल्ली
उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश रहे हों मगर जो उन्हंे नजदीक से
जानते हैं वे इस तथ्य से भी भलीभांति परिचित होंगे कि न्यायिक सेवा
में शामिल होने से पूर्व राजिंदर सच्चर पंजाब राज्य कम्युनिस्ट पार्टी
के महासचिव हुआ करते थे। उनके पिता स्वर्गीय भीमसेन सच्चर गुजरांवाला
के रहने वाले थे। पाकिस्तान बनने से पहले तक वे अपने नगरवासियों को यह
विश्वास दिलाते रहे कि पाकिस्तान का निर्माण किसी भी कीमत पर नहीं
होगा। मगर पाकिस्तान के गठन की घोषणा होने के तुरंत बाद उन्होंने सबसे
पहले पूर्व प्रधानमंत्री श्री इंदर कुमार गुजराल के पिता श्री अवतार
नारायण गुजराल के साथ लाहौर से विमान पकड़ा और कराची जाकर पाकिस्तानी
संविधान सभा के सदस्य के रूप में शपथ ग्रहण कर ली। उन्होंने इस बात की
कोई चिंता नहीं की कि पाकिस्तान में मुस्लिम लीग के सशस्त्र रजाकार
फौज और पुलिस के साथ मिलकर हिंदुओं और सिखों के खून की होली खेल रहे
हैं। ऐसे व्यक्ति से न्याय की आशा करना सरासर व्यर्थ है। इस बात को
कौन नहीं जानता कि उन्होंने पूर्व सेना अध्यक्ष जनरल जे.जे. सिंह से
यह सूचना मांगी थी कि भारतीय सेना में मुसलमानों का कितना
प्रतिनिधित्व है। जनरल सिंह ने उन्हें इस संबंध में कोई भी
सूचना देने से यह कहकर इंकार कर दिया कि भारतीय सेना में काम करने
वाले सभी सैनिक भारतवासी हैं। इसलिए उनका सांप्रदायिक आधार पर कोई
रिकार्ड नहीं रखा जाता। ऐसे व्यक्ति की रपट को आधार बनाकर पुलिस विभाग
में सांप्रदायिक आधार पर जो विभाजन पैदा करने की कोशिश की जा रही है
वह देश की एकता के लिए बेहद खतरनाक है।
सपा भी दौड़ में शामिल: मुस्लिम
तुष्टीकरण की जो अंधी दौड़ चल रही है उसमें समाजवादी पार्टी भला
कांग्रेस से पीछे कैसे रह सकती है। इसलिए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री
अखिलेश यादव ने घोषणा की है कि राज्य में 18 प्रतिशत थानों में
मुस्लिम अधिकारी नियुक्त किए जाएंगे। उनका तर्क है कि समाजवादी पार्टी
ने अपने चुनाव घोषणापत्र में मुसलमानों को उनकी जनसंख्या के अनुपात से
आरक्षण देने का वायदा किया था। क्या इससे सांप्रदायिक विभाजन को
प्रोत्साहन नहीं मिलेगा?
अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष वजाहत हबीबुल्लाह ने देश में इस्लामिक
बैंकिंग को लागू करने की जोरदार वकालत करनी शुरू कर दी है। कट्टरवादी
मुसलमान इस्लामिक बैंकिंग व्यवस्था को देश में लागू करने की काफी पहले
से मांग करते आ रहे हैं। उनका तर्क है कि यदि यह व्यवस्था लागू कर दी
गई तो विदेशों में रहनेवाले मुसलमानों से अरबों डॉलर की सहायता
प्राप्त होगी। राज्य सभा में सरकार यह स्वीकार कर चुकी है कि भारतीय
रिजर्व बैंक वर्तमान व्यवस्था में इस्लामिक बैंकिंग व्यवस्था को देश
में लागू करने के लिए तैयार नहीं है। अजीब बात है कि अल्पसंख्यक आयोग
के अध्यक्ष इसके बावजूद वित्त मंत्रालय पर इस्लामिक बैंकिंग व्यवस्था
को लागू करने पर दबाव डाल रहे हैं। उनका तर्क है कि भारतीय बैंकों में
मुस्लिम खातेदारों के जो खाते हैं उनके ब्याज के रूप
में 4 हजार करोड़ रुपये पड़े हुए हैं। यह धनराशि मुसलमानों में वितरित
की जानी चाहिए। क्या इसे देश की एकता के लिए खतरा माना नहीं जाना
चाहिए? इस्लामिक बैंकिंग व्यवस्था की आड़ में
विदेशों से जो धनराशि प्राप्त होगी उसका एक बड़ा हिस्सा मुसलमानों में
वितरित किया जाएगा। क्या इस धनराशि को प्राप्त करने के लोभ में गैर
मुसलमान 'इस्लाम' को स्वीकार करने से गुरेज करेंगे? क्या इससे देश में
मतान्तरण को बढ़ावा नहीं मिलेगा? क्या प्रलोभन द्वारा मतान्तरण करना
देश की एकता के लिए खतरनाक नहीं होगा?
ध्यान देने की बात यह है कि जमायते इस्लामी, जो कि काफी समय से देश
में इस्लामिक बैंकिंग व्यवस्था को लागू करने पर जोर दे रही है, ने
वजाहत हबीबुल्लाह के इस सुझाव का स्वागत किया है। इस बात को कौन
नहीं जानता कि वजाहत हबीबुल्लाह नेहरू परिवार के बहुत नजदीक रहे हैं।
उनकी माता जी कभी राज्य सभा में कांग्रेस की सदस्या हुआ करती थीं।
केरल में मुस्लिम संगठनों द्वारा इस्लामिक बैंकिंग व्यवस्था की आड़
में इस्लामी देशों के पूंजी निवेश की मांग को कुछ वर्ष पूर्व उछाला
गया था। मगर रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने इस मांग को अव्यावहारिक बताते
हुए ठुकरा दिया था। अब संप्रग की अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी के
इशारे पर राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष आने वाले चुनावों में
मुस्लिम मतों को कांग्रेस की झोली में डलवाने के उद्देश्य से पुन: इस
मांग को उछाल रहे हैं। क्या इस मांग से देश और समाज में एक नए विभाजन
की नींव नहीं रख दी जाएगी?
कानून में भेदाभेद क्यों?: अभी
मुंबई में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के अधिवेशन में अतिवादी मुसलमानों
ने यह शिकायत की थी कि देश की अदालतें शरियत कानूनांे में हस्तक्षेप
कर रही हैं, जो कि संविधान के विरुद्ध है। इस अधिवेशन में इसके खिलाफ
देशव्यापी आंदोलन छेड़ने की धमकी भी दी गई थी। महाराष्ट्र सरकार ने
तलाकशुदा महिलाओं को उनके पूर्व पति की संपत्ति में हिस्सा देने के
संबंध में राज्य विधानसभा में एक विधेयक पेश करने की घोषणा की थी।
इसका विरोध महाराष्ट्र के अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री आरिफ नसीम खां
ने यह कहकर किया कि यह विधेयक इस्लाम के सिद्धांतों के खिलाफ है।
मुसलमान अपने शरई कानूनों में किसी तरह का हस्तक्षेप सहन नहीं करेंगे।
इस धमकी के बाद यह विधेयक सदा के लिए खटाई में डाल दिया
गया।
हाल में ही दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक निर्णय दिया है जिसमें कहा गया
है कि यदि कोई मुस्लिम लडकी 15 वर्ष की आयु में 'वयस्क' हो जाती है तो
वह अपनी मर्जी से विवाह कर सकती है और उसका यह विवाह कानूनी दृष्टि से
मान्य होगा। अदालत ने कहा है कि इस्लामी कानून में इस बात की व्यवस्था
है। प्रश्न यह पैदा होता है कि क्या इस देश में प्रत्येक मत-पंथ के
लोगों के लिए अलग-अलग कानून होगा? 'हिंदू मैरिज एक्ट' के अनुसार 18
वर्ष से कम उम्र की शादी मान्य नहीं है, जबकि 'चाइल्ड मैरिज
एक्ट' के तहत 18 वर्ष से कम आयु की लड़की और 21 वर्ष से कम
उम्र के लड़के की शादी नहीं हो सकती और अगर ऐसा होता है तो वह अमान्य
होगी। यदि कोई व्यक्ति ऐसी शादी करवाता है तो उसे दो साल तक की जेल और
एक लाख रु. तक का जुर्माना हो सकता है। ऐसी स्थिति में 15 वर्ष की आयु
की लड़की की शादी को जायज करार देना क्या कानून का उल्लंघन नहीं
है?
साफ है कि संप्रग सरकार मुस्लिम वोट प्राप्त करने के लिए जानबूझकर सभी
कायदे-कानूनों और नियमों को ताक पर रखने पर तुली हुई है। मुस्लिम वोट
बटोरने के मोह में वह भारतीय समाज को सांप्रदायिक आधार पर विभाजित
करने का प्रयास कर रही है, जो कि देश के लिए बेहद खतरनाक है।
- मनमोहन शर्मा, पाञ्चजन्य
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