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विधानसभा में अश्लील वीडियों देखना अपराध है तो चैम्बर में अश्लील हरकत महा अपराध है
निजी जीवन और सार्वजनिक जीवन में अंतर की बहस पुरानी है। जो
सार्वजनिक जीवन में हैं, वे अपने अमर्यादित आचरण को निजता के तर्क से
ढ़कना चाहते हैं जबकि लोकमत दोहरे आचरण को अशिष्टता मानता है। इस
सप्ताह यह अजीब दुर्योग भी सामने आया है कि जब हमारे माननीय
प्रधानमंत्री जी सार्वजनिक जीवन में पारदर्शिता, जवाबदेही तथा शुचिता
एवं नैतिक मानदंडों के पालन की जरूरत पर बल दे रहे थे ठीक उसी समय
सत्तारूढ़ दल के प्रवक्ता अपने कुकृत्य को निजता के नाम पर छिपाने की
कोशिश में थे। निजता और नीचता के अंतर को मिटाते हुए अपने आचरण का
बचाव करने वालो से पूछा जा सकता है कि यदि वे नैतिक मापदंड़ों अर्थात्
शुचिता का पालन नहीं कर सकते तो उन्होंने सार्वजनिक जीवन जहाँ नेतृत्व
से आदर्श प्रतिमान की आपेक्षा की जाती है, चुना ही क्यों? आज से नहीं,
मानव सभ्यता के आरंभिक बिंदू से ही नायक को ईश्वर के प्रतिनिधि का
दर्जा दिया गया है। देश-काल की सीमाएं भी इस प्रतिमान से मुक्त नहीं
हैं। स्वयं भारत में आजादी के 65 वर्ष बाद भी जहाँ हम स्वतंत्र एवं
संप्रभु हैं, राजा- महाराजाओं का कोई सवैधानिक आस्तित्व नहीं है लेकिन
उन्हें अवतारी पुरुषों जैसा रूतबा और सम्मान समाप्त नहीं हो सका तो
इसका जरूर कोई कारण होगा। आज भी सत्ता के शीर्ष पर पहुँचे व्यक्ति ही
नहीं, उसके परिवार के अयोग्य सदस्यों तक आकर्षण का केन्द्र और
सम्मानित बने हुए हैं। श्रीकृष्ण ने गीता में कहा कि पाप तब तक ही पाप
है जब तक उसे छिपाया गया है। सत्य भी है पाप उतना नहीं सताता जितना कि
उसका किया जाना।
आज वर्तमान परिदृश्य में सब कुछ बदला-बदला है। आज चरित्रहीन पूजनीय
एवं माननीय हो गए है। चरित्रहीन की इस दौड़ में सब कुछ उल्टा-पुल्टा
हो रहा है। मर्यादाएं एवं नैतिक मूल्य आज दो कोड़ी की चीज बन
प्रदर्शनी के भी लायक नहीं रह गई। चारों ओर हला-हल विष के सागर में
विशाल ज्वार उठ रहे है, समाज भयभीत है, डरा है, कहते हैं देवताओं एवं
असुरों ने मिल जब समुद्र का मंथन किया तो अमृत और विष दोनों ही निकले।
असुर बहरूपीया होने के कारण देवता की पंगत में बैठ अमृत पीने का असफल
प्रयास राहू के द्वारा किया गया था, जो अमर है, जो आज भी चाहे जब किसी
को भी ग्रस रहा है। क्या आज कुछ चरित्रहीन माननीय, का चोला ओढ़ जनता
को नहीं ग्रस रहे हैं? चरित्रवान होने की जिम्मेदारी जनता की तुलना
में शासकों की ज्यादा बनती है। क्या यह सत्य नहीं कि सार्वजनिक जीवन
में चमक-दमक ही नहीं शक्ति भी है? इसीलिए तो ये लोग ताकत के दंभ में
नियमों- कानूनों का मनमाने ढ़ंग से दुरपयोग करते हैं। अपने प्रभामंडल
से अधिकारियों को प्रभावित करना एक सामान्य प्रक्रिया है। सब कुछ
जानते हुए भी जनता खामोश बनी रहती है क्योंकि वह समझ चुकी है कि
राजनीति का रंग इतना बदरंग हो चुका है। लेकिन वह व्यक्ति जो अपने
विरोधियों को लगातार नसीहते देता हो, स्वयं में कानून का ज्ञाता और
सत्तारुढ़ दल का प्रवक्ता हो, यदि उसका व्यक्तिगत आचरण दोषपूर्ण पाया
जाता है तो समाज में असंतोष और क्षोभ होना स्वाभाविक है। संसद की
शक्तिशाली समिति से इस्तीफा देने को बाध्य अभिषेक सिंघवी की वह सीडी
जिसमें वे न केवल चरित्रहीन सिद्ध हो रहे हैं बल्कि उस महिला को जज
बनवाने का वायदा कर स्वयं को नियम-कानूनों से बड़ा सि़द्ध कर रहे हैं।
पकड़े जाने पर वे तर्क प्रस्तुत कर रहे हैं ‘निजी जीवन और सार्वजनिक
जीवन अलग- अलग है इसलिए निजी जीवन में ताका-झाकी नहीं होनी
चाहिए।’
आश्चर्य है कि सत्ता के उच्च केन्द्र पर विराजित ये महाशय एक ओर तो
चरित्रिक पतन के शिकार है तो दूसरी ओर अपनी इस दुर्बलता के कारण किसी
को गलत ढ़ंग से नियुक्ति अथवा पद्दोन्नति का वायदा करने को अपनी निजी
जिंदगी बताते है। क्या उस महिला को वह अपने निजी संस्थान में नौकरी
देने का वायदा कर रहा था? निजी जीवन की बात करने वाला इतना भी नहीं
जानता कि इस प्रकार के संबंध किससे बनाना निजता है और किससे नीचता।
क्या कानून के इतने ज्ञाता को बताना पड़ेगा कि समाज की अपनी मर्यादाएं
होती हैं और कोई भी इन मर्यादाओं को ताक पर रखकर स्वयं को सभ्य अथवा
सामाजिक घोषित नहीं कर सकता। हम सभी सामाजिक प्राणी होने के नाते समाज
की मर्यादाओं के पालन के प्रति प्रतिबद्ध है तथा हर प्रकार का अनैतिक
आचरण हमारे लिए प्रतिबंधित है। विशेष रूप से वे लोग जो सार्वजनिक जीवन
के लाभ जो लेना चाहते हैं लेकिन अपनी निजी स्वतंत्रता का भी सामान्य
से अधिक सुख लेने को भी आतुर रहते हैं, उन्हें समझना होगा कि स्टेटस
निजता की बलि लेता है। एक शासक के लिए अपने परिवार की समस्याएं बड़ी
है या सम्पूर्ण राष्ट्र की समस्याएं? राज्य पर आए संकट और परिवार के
समक्ष चुनौती में उसे राज्य को प्राथमिकता देनी ही होगी, वरना वह
सार्वजनिक जीवन के अयोग्य है। यह भी कि जब कोई सार्वजनिक जीवन में आना
चाहता है तो उसे समझ लेना चाहिए कि उसकी हर हरकत पर दूसरों की नजर
होगी। उसका आचरण दूसरों के लिए भी उदाहरण बनता है।
श्रीमद्भागवत गीता के तीसरे अध्याय के इक्कीसवें श्लोक में में
योगेश्वर श्रीकृष्ण विषादग्रस्त अर्जुन को संबोधित करते हुए कहते हैं-
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः। स यत्प्रमाणं कुरुते
लोकस्तदनुचर्तते।। अर्थात् महापुरुष जो जो आचरण करता है सामान्य
व्यक्ति उसी का अनुसरण करते हैं। वह अपने अनुसरणीय कार्यों से जो
आदर्श प्रस्तुत करता है, सम्पूर्ण विश्व उसका अनुसरण करता है। यदि
सत्ता से शक्ति पाये लोग ही समाज की मर्यादाओं को इस तरह से अपने
पैरों तले रौंदेगे तो दूसरों को गलती करने से रोकने का नैतिक बल कहाँ
से लाएगें? कैसे उसे रोकेगा जो किसी सार्वजनिक स्थान पर अशिष्ट
अमर्यादित आचरण करते हुए इसे अपनी निजता कहेगा? यदि कल को कोई अपनी
पत्नी, अपनी कन्या भ्रूण हत्या को अपनी जिंदगी घोषित करते हुए कानूनी
कार्यवाही का प्रतिवाद करेगा तो इस कुकृत्य के लिए आखिर उसे कैसे
हत्यारे को सींखचों के पीछे पहुँचाया जा सकेगा? हाँ, यह सही है कि
अनावश्यक रूप से किसी के जीवन में ताका-झाकी अथवा हस्तक्षेप नहीं होना
चाहिए लेकिन किसी अपराध का पर्दाफाश करने का प्रयास निजता के हनन की
श्रेणी में नहीं आता। यदि ऐसे प्रयासों पर प्रश्नचिन्ह लगाया गया तो
कल अपराधों की रोकथाम के लिए की जाने वाली गुप्तचर सेवा पर भी सवाल
उठेगे। उसे कोई अपराधी अपनी निजी जिंदगी की आड़ लेकर रोकने की कोशिश
करेगा तो क्या जवाब दोगे? क्या अपने और दूसरों के लिए अलग- अलग नियमों
की मांग करेंगे? क्या सार्वजनिक जीवन में प्रवेश भर से वे विशेषाधिकार
के पात्र हो गए? क्या ऐसा करने से समाज में समाज व्यवस्थित रह पायेगा?
अच्छा होता, दूसरों को कानून की बारीकियों के बारे में अपनी योग्यता
की जानकारी देने वाले यह भी जानने की कोशिश करते कि किसी भी समाज की
परम्पराएं और मर्यादाएं किसी कानून से कमतर नहीं होती।
कानून के उल्लंघन पर तो संदेह का लाभ देकर बरी भी किया जा सकता है
लेकिन चारित्रिक पतन को हमारा समाज कदापि स्वीकार नहीं कर सकता। आखिर
चरित्र को सबसे बड़ी दौलत यूं ही नहीं कहा जाता। यह बात केवल भारत
भूमि तक सीमित नहीं है, कुछ वर्ष पूर्व एक सीडी सामने आई जिसमें उस
समय के अमेरिकी राष्ट्रपति और उनकी सहायिका के अंतरंग संबंधों का
खुलासा था तो वहाँ भी उनकी जमकर आलोचना ही नहीं हुई बल्कि उनपर
महाभियोग तक चलाया गया जबकि पश्चिम में यौन शुचिता कोई बहुत बड़ी बात
नहीं होती। हमारे समाज में मर्यादा सर्वोपरि है। हम अपने इष्ट तक से
मर्यादा पुरुषोत्तम होने की आपेक्षा करते हैं तो एक वकील या नेता आखिर
क्यों कुछ भी करने की छूट प्राप्त करे? अभिषेक सिंघवी उस प्रतिष्ठित
पिता की संतान हैं, जिसने अपने लोक व्यवहार से देश का मान बढ़ाया। आज
जब यही जिम्मेवारी पुत्र पर आई तो वह चूक गया। अच्छा होता वे अपना
अपराध स्वीकार करते हुए स्वयं को प्रायश्चित के लिए प्रस्तुत करते, न
कि निजता की परिभाषा को इतना विकृत करने की कोशिश करते कि निजता,
नीचता का पर्याय बन जाती।
सरकार और समाज को जिम्मेवार पदों पर बैठे लोगों के छोटे से छोटे नैतिक
अपराध पर उन्हें कठोरतम दंड देना चाहिए। यदि विधानसभा में अश्लील
वीडियों देखना अपराध है तो देश की सबसे बड़ी अदालत में चैम्बर में
अश्लील हरकत महा अपराध है। दोनों हरकते लोकतंत्र पर काला धब्बा हैं।
सथ्य समाज पर कलंक है। ऐसे लोगों से जुड़ी पार्टियों इन्हें अपने दल
से निकाल बाहर करने का नैतिक साहस दिखा कर सार्वजनिक जीवन में
पारदर्शिता की शुरुआत कर सकती हैं। पर्दो में रहने वालों को मंच से
खंदेड़ना लोकतंत्र ही नहीं, कानून व्यवस्था के हित में भी जरूरी है।
शरीर के किसी अंग में यदि कोई कैंसर हो जाता है तब व्यक्ति की जान
बचाने के लिये डॉक्टर उस शरीर से उस ग्रसित अंग को काट देता है। इसी
तर्ज पर अच्छे चरित्रवान लोगों को मिल चरित्रहीन अर्थात् दागी लोगों
को दाग घुलने तक राजनीति में प्रवेश वर्जित करने के कड़े नियमों को
बनाना होगा। यहाँ लोक लाज और लोकतंत्र दोनों केा बचाना है। केवल गाल
बजाने से स्थिति, परिस्थितियों में सुधार नहीं हो सकता।
डा. विनोद बब्बर, संपादक "राष्ट्र किंकर"
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