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चिकित्सा (शरीर क्रिया विज्ञान) क्षेत्र में १९६८ में नोबेल
पुरस्कार जीतने वाले भारतीय मूल के वैज्ञानिक डॉ हरगोविंद खुराना का
मेनचेस्टर में निधन हो गया। वे ८९ वर्ष के थे एवं १९६० से ही अमरीका
में निवास करते थे। डॉ. हरगोविंद खुराना भारत के लिए किसी रत्न से कम
न थे। अनुवांशिक रोगों के इलाज में खुराना का महत्वपूर्ण योगदान है।
उनकी खोज के कारण ही वैज्ञानिक कई अनुवांशिक रोगों का इलाज ढूंढ़ने
में सफल हो पाए।
वैज्ञानिक डॉ हरगोविंद खुराना का जन्म अविभाजित भारतवर्ष के रायपुर
(जिला मुल्तान, पंजाब) नामक कस्बे में हुआ था। पटवारी पिता के चार
पुत्रों में ये सबसे छोटे थे। प्रतिभावान् विद्यार्थी होने के कारण
स्कूल तथा कालेज में इन्हें छात्रवृत्तियाँ मिलीं। पंजाब
विश्वविद्यालय से सन् 1943 में बी. एस-सी. (आनर्स) तथा सन् 1945 में
एम. एस-सी. (ऑनर्स) परीक्षाओं में ये उत्तीर्ण हुए तथा भारत सरकार से
छात्रवृत्ति पाकर इंग्लैंड गए। यहाँ लिवरपूल विश्वविद्यालय में
प्रोफेसर ए. रॉबर्टसन् के अधीन अनुसंधान कर इन्होंने डाक्टरैट की
उपाधि प्राप्त की। इन्हें फिर भारत सरकार से शोधवृत्ति मिलीं और ये
जूरिख (स्विट्सरलैंड) के फेडरल इंस्टिटयूट ऑव टेक्नॉलोजी में प्रोफेसर
वी. प्रेलॉग के साथ अन्वेषण में प्रवृत्त हुए।
भारत में वापस आकर डाक्टर खुराना को अपने योग्य कोई काम न मिला। हारकर
इंग्लैंड चले गए, जहाँ केंब्रिज विश्वविद्यालय में सदस्यता तथा लार्ड
टाड के साथ कार्य करने का अवसर मिला1 सन् 1952 में आप वैकवर (कैनाडा)
की ब्रिटिश कोलंबिया अनुसंधान परिषद् के जैवरसायन विभाग के अध्यक्ष
नियुक्त हुए। सन् 1960 में इन्होंने संयुक्त राज्य अमरीका के
विस्कान्सिन विश्वविद्यालय के इंस्टिट्यूट ऑव एन्ज़ाइम रिसर्च में
प्रोफेसर का पद पाया। यहाँ उन्होंने अमरीकी नागरिकता स्वीकार कर
ली।
नाभिकीय अम्ल सहस्रों एकल न्यूक्लिऔटिडों से बनते हैं। जैव कोशिकओं के
आनुवंशिकीय गुण इन्हीं जटिल बहु न्यूक्लिऔटिडों की संरचना पर निर्भर
रहते हैं। डॉ. खुराना ग्यारह न्यूक्लिऔटिडों का योग करने में सफल हो
गए थे तथा अब वे ज्ञात शृंखलाबद्ध न्यूक्लिऔटिडोंवाले न्यूक्लीक अम्ल
का प्रयोगशाला में संश्लेषण करने में सफल हुये। इस सफलता से ऐमिनो
अम्लों की संरचना तथा आनुवंशिकीय गुणों का संबंध समझना संभव हो गया है
और वैज्ञानिक अब आनुवंशिकीय रोगों का कारण और उनको दूर करने का उपाय
ढूँढने में सफल हो सकेंगे।
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