यह गरीब नहीं, ढोर होने का पैमाना है : डॉ. वेदप्रताप वैदिक

Published: Tuesday, Sep 27,2011, 17:32 IST
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अगर किसी की गरीबी तय करने का पैमाना सिर्फ यही है कि वह रोज़ाना कितना खर्च करता है तो हमारे देश में सबसे ज्यादा गरीब तो नेता लोग ही होंगे, क्योंकि उन्हें तो कुछ खर्च करना ही नहीं पड़ता है। माले-मुफ्त और दिले-बेरहम! उन्हें हर चीज़ लगभग मुफ्त मिलती है। हर चीज़ उन्हें इतने रियायती दाम पर मिलती है कि उसी दाम पर वे चीजे़ अगर सबको मिलने लगें तो देश की गरीबी ही दूर हो जाए। क्या घी-दूध, क्या खाना, क्या मकान, क्या रेल और क्या हवाई यात्राएं और क्या-क्या भत्ते? कपड़े-लत्ते और जेवर तो लोग रोज़ भेंट चढ़ा ही जाते हैं। लाखों रू. में मिलनेवाला वेतन बैंकों में ज्यों का त्यों जमा होता रहता है। कोई भी विधायक, सांसद और मंत्री बाद में बनता है, उसका खर्च घटना पहले से ही शुरू हो जाता है। उनके यहॉं तो आमदनी ही आमदनी है। वहॉं खर्च का क्या काम?

खर्च तो बेचारे आम नागरिक करते हैं। खर्च का बोझ कर्ज लेने को मजबूर करता है और कर्ज आत्महत्या करने को मजबूर करता है। हजारों किसान अब तक मौत के घाट उतर चुके हैं। हमारी सरकार बड़ी दयालु है। वह किसी को भी मरने देना नहीं चाहती। इसीलिए आजकल वह देश में गरीबों की तलाश में जुटी हुई है। हमारा योजना आयोग उच्चतम न्यायालय को बता रहा है कि इस देश में शहरी गरीब वह है, जो ज्यादा से ज्यादा 32 रू. रोज़ और ग्रामीण गरीब वह है, जो 26 रू. रोज़ खर्च करता है।

पता नहीं सरकार किसे खोज रही है? कोई इन्सान तो 32 रू रोज में गुजारा नहीं कर सकता। इतने कम पैसों में तो जानवर का गुजारा भी मुश्किल है। वह देश में गरीब खोज रही है या जानवर खोज रही है? वह देश के लगभग 80 करोड़ लोगों को क्या मालदार कहना चाह रही है? जो 33 रू. रोज खर्च कर सकता है, क्या वह गरीब नहीं है? अर्जुन सेनगुप्ता ने अभी कुछ साल पहले ही अपनी रपट में लिखा था कि लगभग 80 करोड़ लोग 20 रू. रोज पर गुजारा कर रहे हैं। यदि वे आज 35 रू रोज पर भी गुजारा कर रहे हो तो क्या हम उन्हें गरीब नहीं मानेंगें ? क्या उन्हें वे सुविधाएं नहीं मिलेंगी, जो किसी भी गरीब को मिलनी चाहिए? इस देश में करोड़ों लोगों को न्यूनतम रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा और चिकित्सा उपलब्ध नहीं है। वे जानवरों का जीवन जी रहे हैं। उन्हें गरीब मानना गरीबी का मज़ाक है। जिसे गरीबी का पैमाना बताया जा रहा है, वह वास्तव में ढोर होने का पैमाना है। इस देश को हमारी सरकार ढोरों का देश बनाने पर तुली हुई है।

इस मुद्दे पर हमारे नेताओं को कोई शर्म नहीं आती, क्योंकि उनका खर्च तो इन ‘ढोरों’ से भी कम है लेकिन कई नेता ज़रा एक हफ्ते के लिए 32 रू0 रोज में जीकर दिखाएं? सच्चाई तो यह है कि इस देश में सरकारों के कान खींचनेवाले नेता अब हैं ही नहीं। ज़रा याद कीजिए, तीन आनेवाली बहस! लोहिया ने कहा था कि करोड़ों लोग तीन आने रोज पर गुजारा करते हैं, जबकि प्रधानमंत्री पर 25000 रू. रोज़ खर्च होता है। आज आम आदमी पर 30 रू. रोज खर्च होता है तो प्रधानमंत्री और मंत्रियों पर तीन लाख रू. रोज़ से ज्यादा खर्च होता हैं। लेकिन यह सवाल कौन उठाएगा, क्योंकि सारे कुएं में ही भांग पड़ी हुई है। सारे नेता एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। मौसेरे भाइयों ने लूट मचा रखी है।

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