भारतीय मूल के सौ साल के ‘जवान’ फौजा सिंह ने 42 किलोमीटर की मैराथन दौड़कर इतिहास रच दिया।फौजा सिंह को सौ साल के..
जिस देश को बरबाद करना हो सबसे पहले उसकी संस्कृति पर हमला करो
किसी ने सच ही कहा है कि जिस देश को बरबाद करना हो सबसे पहले उसकी
संस्कृति पर हमला करो और वहाँ की युवा पीढी को गुमराह करो । जो समाज
इनकी रक्षा नहीं कर सकता उसका पतन और सर्वनाश निश्चित हो जाता है ।
हमारे आसपास घटने वाली काफ़ी बातें समाज के गिरते नैतिक स्तर और खोखले
होते सांस्कृतिक माहौल की ओर इशारा कर रही हैं, एक खतरे की घंटी बज
रही है, लेकिन समाज और नेता लगातार इसकी अनदेखी करते जा रहे हैं ।
इसके लिये सामाजिक ढाँचे या पारिवारिक ढाँचे का पुनरीक्षण करने की बात
अधिकतर समाजशास्त्री उठा रहे हैं, परन्तु मुख्यतः जिम्मेदार है हमारे
आसपास का माहौल और लगातार तेज होती जा रही "भूख" ।
जी हाँ "भूख" सिर्फ़ पेट की नहीं होती, न ही सिर्फ़ तन की होती
है, एक और भूख होती है "मन की भूख" । इसी विशिष्ट भूख को "बाजार"
जगाता है, उसे हवा देता है, पालता-पोसता है और उकसाता है। यह
भूख पैदा करना तो आसान है, लेकिन क्या हमारा समाज, हमारी राजनीति,
हमारा अर्थतन्त्र इतना मजबूत और लचीला है, कि इस भूख को शान्त कर सके
।
दृश्य-श्रव्य माध्यमों का प्रभाव कोमल मन पर सर्वाधिक होता है, एक
उम्र विशेष के युवक, किशोर, किशोरियाँ इसके प्रभाव में बडी जल्दी आ
जाते हैं । जब यह वर्ग देखता है कि किसी सिगरेट पीने से बहादुरी के
कारनामे किये जा सकते हैं, या फ़लाँ शराब पीने से तेज दौडकर चोर को
पकडा जा सकता है, अथवा कोई कूल्हे मटकाती और अंग-प्रत्यंग का
फ़ूहड प्रदर्शन करती हुई ख्यातनाम अभिनेत्री किसी साबुन को खरीदने की
अपील (?) करे, तो वयःसन्धि के नाजुक मोड़ पर खडा किशोर मन उसकी ओर
तेजी से आकृष्ट होता है । इन्तिहा तो तब हो जाती है, जब ये
सारे तथाकथित कारनामे उनके पसन्दीदा हीरो-हीरोईन कर रहे होते हैं, तब
वह भी उस वस्तु को पाने को लालायित हो उठता है, उसे पाने की कोशिश
करता है, वह सपने और हकीकत में फ़र्क नहीं कर पाता ।
जब तक उसे इच्छित वस्तु मिलती रहती है, तब तक तो कोई समस्या नहीं है,
परन्तु यदि उसे यह नहीं मिलती तो वह युवक कुंठाग्रस्त हो जाता है ।
फ़िर वह उसे पाने के लिये नाजायज तरीके अपनाता है, या अपराध कर बैठता
है । और जिनको ये सुविधायें आसानी से हासिल हो जाती हैं, वे इसके आदी
हो जाते हैं, उन्हें नशाखोरी या पैसा उडाने की लत लग जाती है, जिसकी
परिणति अन्ततः किसी मासूम की हत्या या फ़िर चोरी-डकैती में शामिल होना
होता है । ये युवक तब अपने आपको एक अन्धी गली में पाते हैं, जहाँ से
निकलने का कोई रास्ता नहीं सूझता । आजकल अपने आसपास के युवकों को
धडल्ले से पैसा खर्च करते देखा जा सकता है । यदि सिर्फ़ पाऊच /
गुट्खे का हिसाब लगाया जाये, तो एक गुटका यदि दो रुपये का मिलता है,
और दिन में पन्द्रह-बीस पाऊच खाना तो आम बात है, इस हिसाब से सिर्फ़
गुटके का तीस रुपये रोज का खर्चा है, इसमें दोस्तों को खिलाना, सिगरेट
पिलाना, मोबाइल का खर्च, दिन भर यहाँ-वहाँ घूमने के लिये पेट्रोल का
खर्चा, अर्थात दिन भर में कम से कम सौ रुपये का खर्च, मासिक तीन हजार
रुपये । क्या भारत के युवा अचानक इतने अमीर हो गये हैं ? यह
अनाप-शनाप पैसा तो कुछ को ही उपलब्ध है, परन्तु जब उनकी देखादेखी एक
मध्यम या निम्नवर्गीय युवा का मन ललचाता है, तो वह रास्ता अपराध की ओर
ही मुडता है । यह "बाजार" की मार्केटिंग की ताकत (?) ही है, जो इस "मन
की भूख" को पैदा करती है, और यही सबसे खतरनाक बात है ।
अपसंस्कृति की भूख फ़ैलाने में बाजार और उसके मुख्य हथियार (!) टीवी का
योगदान (?) इसमें अतुलनीय है । उदारीकरण की आँधी में हमारे नेताओं
द्वारा सांस्कृतिक प्रदूषण की ओर से आँखें मूंद लेने के कारण इनकी
गतिविधियों पर अंकुश लगाने वाला कोई न रहा, जिसके कारण ये तथाकथित
"मीडिया" और अधिक उच्छृंखल और बदतर होता गया है । एक जानकारी के
अनुसार फ़्रेण्डशिप डे के लिये पूरे देश के "बाजार" में लगभग चार सौ
करोड़ रुपयों की (ग्रीटिंग, गुलाब के फ़ूल, चॉकलेट और उपहार मिलाकर)
खरीदारी हुई । जो चार सौ करोड रुपये (जिनमें से अधिकतर बहुराष्ट्रीय
कम्पनियों की जेब में गये हैं) अगले वर्ष बढकर सात सौ करोड हो
जायेंगे, इसका उन्हें पूरा विश्वास है । लेकिन "प्रेम" और "दोस्ती" के
इस भौंडे प्रदर्शन में जिस "धन" की भूमिका है वही सारे पतन की जड है,
और इसका सामाजिक असर क्या होगा, इस बारे में कोई सोचने को भी तैयार
नहीं है । जिस तरह से भावनाओं का बाजारीकरण किया जा रहा है, युवाओं का
मानसिक और आर्थिक शोषण किया जा रहा है, वह गलत है, कई बार यह आर्थिक
शोषण, शारीरिक शोषण में बदल जाता है । मजे की बात तो यह है कि कई बार
कोई दिवस क्यों मनाया जाता है, इसका पता भी उन्हें नहीं होता, परन्तु
जैसा मीडिया बता दे अथवा जैसी "भेडचाल" हो वैसा ही सही, जैसा कि
वेलेण्टाइन के मामले मे है कि "जिस दिन को ये युवा प्रेम-दिवस के रूप
में मनाते हैं दरअसल वह एक शहीद दिवस है, क्योंकि संयोगवश तीनों
वेलेण्टाइनों को तत्कालीन राजाओं ने मरवा दिया था, और वह भी चौदह
फ़रवरी को" ।
अब आपत्ति इस बात पर है कि जब आप जानते ही नहीं कि यह उत्सव किसलिये
और क्यों मनाया जा रहा है, ऐसे दिवस का क्या औचित्य है ? मार्केटिंग
के पैरोकारों की रटी-रटाई दलील होती है कि "यदि इन दिवसों का
बाजारीकरण हो भी गया है तो इसमें क्या बुराई है ? क्या पैसा कमाना गलत
बात है ? किसी बहाने से बाजार में तीन-चार सौ करोड रुपया आता है, तो
इसमें हाय-तौबा क्यों ? जिसे खरीदना हो वह खरीदे, जिसे ना खरीदना हो
ना खरीदे, क्या यह बात आपत्तिजनक है ?" नहीं साहब पैसा कमाना बिलकुल
गलत बात नहीं, लेकिन जिस आक्रामक तरीके उस पूरे "पैकेज" की मार्केटिंग
की जाती है, उसका उद्देश्य युवाओं से अधिक से अधिक पैसा खींचने की
नीयत होती है और वह "मार्केटिंग" उस युवा के मन में भी खर्च करने के
भाव जगाती है जिसकी जेब में पैसा नहीं है और ना कभी होगा, यह गलत बात
है । पढने-सुनने में भले ही अजीब लगे, परन्तु सच यही है कि आज की
तारीख में भारत के पचास-साठ प्रतिशत युवाओं की खुद की कोई कमाई नहीं
है, और ऐसे युवाओं की संख्या भी कम ही है जिन्हें नियमित जेबखर्च
मिलता हो । बाप वीआरएस और जबरन छँटनी का शिकार है, और बेटे को कोई
नौकरी नहीं है, इसलिये दोनों ही बेकार हैं और टीवी उन्हें यह "भूख"
परोस रहा है, पैसे की भूख, साधनों की भूख । भूख जो कि एक दावानल का
रूप ले रही है । इसी मोड पर आकर "सामाजिक परिवर्तन", "सामाजिक
क्रान्ति", "सामाजिक असर" की बात प्रासंगिक हो जाती है, लेकिन लगता है
कि देश कानों में तेल डाले सो रहा है ।
आज हमारे चारों तरफ़ घोटाले, राजनीति, पैसे के लिये मारामारीम हत्याएं,
बलात्कार हो रहे हैं, इन सभी के पीछे कारण वही "भूख" है ।
समाजशास्त्रियों की चिंता वाजिब है कि ऐसे लाखों युवाओं की
फ़ौज समाज पर क्या असर डालेगी ? लेकिन "मदर्स डे", "फ़ादर्स डे",
"वेलेन्टाईन", "फ़्रेण्डशिप डे", ये सब प्रतीक मात्र नहीं है, बल्कि
इनसे आपको कमतरी का एहसास कराया जाता है कि यदि आपने कोई उपहार नहीं
दिया तो आपको दोस्ती करना नहीं आता, यदि आपने कार्ड या फ़ूल नहीं खरीदा
इसका मतलब है कि आप प्रेम नहीं करते, परिणाम यह होता है कि विवेकानन्द
या अपने कोर्स की कोई किताब खरीदने की बजाय व्यक्ति किसी बहुराष्ट्रीय
कम्पनी की कोई बेहूदा चॉकलेट खरीद लेता है, क्योंकि उस
चॉकलेट से तथाकथित "स्टेटस" (?) जुडा है, और यही "स्टेटस" यानी एक और
"भूख" । बाजार को नियन्त्रित करने वालों से यही अपेक्षा है कि उस
"भूख" को भडकाने का काम ना करें, जो आज समाज के लिये "भस्मासुर" साबित
हो रही है, कल उनके लिये भी खतरा बन सकती है ।
साभार सुरेश चिपलूनकर (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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