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बेईमानी, अनीति और छल-कपट, क्या यही हमारे युग का सत्य है? — गुरचरण दास
क्या सिर्फ बेईमानी, अनीति और छल-कपट के सहारे ही कामयाबी हासिल की जा सकती है? क्या यही हमारे युग का सत्य है? सुप्रसिद्ध लेखक गुरचरण दास ने अपनी पुस्तक अच्छाई की कठिनाई: महाभारत का मूलमंत्र में इसी द्वंद्व की व्याख्या करने की एक संुदर कोशिश की है
ब्रजबिहारी एक ऐसे समय में जब सार्वजनिक जीवन में नैतिकता का नितांत अभाव खल रहा है, महाभारत की याद आनी स्वाभाविक है। जरा इन आंकड़ों पर एक नजर डालिए। पिछले आम चुनाव में चुनकर आए हर पांच में से एक सांसद पर आपराधिक अभियोग चल रहा है। सरकारी प्राथमिक विद्यालय के हर चार में से एक शिक्षक अपनी ड्यूटी से गैर-हाजिर रहता है। हर पांच डॉक्टर में से दो तो काम पर आते ही नहीं हैं और सरकारी अस्पतालों से लगभग 70 फीसदी दवाएं चोरी चली जाती हैं। किसी भी सरकारी महकमे में चले जाइए, वहां रिश्वतखोरी की अंधेरी दुनिया का साम्राज्य नजर आएगा। यानी, आज की दुनिया को देखकर तो यही निष्कर्ष निकलता है कि सिर्फ बेइमानी, अनीति और छल-कपट के सहारे ही कामयाबी की मंजिल हासिल की जा सकती है। पर क्या यही हमारे युग का सत्य है?
महाभारत से पूछा जाए तो इसका उत्तर नकारात्मक होगा। यानी भले ही बुराई का अंधेरा चारों और घटाटोप की तरह छाया हो, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि अच्छाई के सारे रास्ते बंद हो गए हैं। यह जरूर है कि अच्छा होना बहुत कठिन है। खासकर एक ऐसे समय में, जब बुराई पर बहुत ज्यादा प्रीमियम मिल रहा हो। सुप्रसिद्ध लेखक और प्रॉक्टर ऐंड गैंबल के पूर्व सीईओ गुरचरण दास ने अपनी पुस्तक अच्छाई की कठिनाई: महाभारत का मूलमंत्र में अच्छाई और बुराई के इसी द्वंद्व की व्याख्या की है। उन्होंने मूल पुस्तक अंग्रेजी में लिखी है, जिसका शीर्षक है द डिफिकल्टी ऑफ बीइंग गुड।
अनुवाद की दुरूहता के बावजूद इसमें कोई दोराय नहीं है कि यह पुस्तक हमें वर्तमान के ढेर सारे सवालों से रू-ब-रू कराती है। कहा जाता है कि भारत में कोई भी महाभारत या रामायण पहली बार नहीं पढ़ रहा होता है। इनकी कथाएं सदा उपलब्ध रहा करती हैं। यही वजह है कि हर पीढ़ी इन महाकाव्यों को रूपांतरित कर अपने हिसाब से उनकी पुनव्र्याख्या करती है, जिसमें उसके समय के सरोकार जुड़े होते हैं। महाभारत हमारे जीवन को अपने दर्पण में दिखाता है और हमें उस संसार का मुकाबला करने के लिए उकसाता है जो स्थायी रूप से संकटग्रस्त है। यह महाकाव्य हमें बताता है कि हमारा अतीत ही विलंबित होकर हमारे वर्तमान में घुल-मिल गया है और हम वहीं ठहरे हैं।
हालांकि इस ग्रंथ को पढ़ते समय यह सवाल उठता है कि जब इसका रचना संसार नैतिक रूप से इतना खोखला है तो इससे हमें अच्छा होने की प्रेरणा भला कैसे मिलेगी? इसमें अच्छे व्यवहार को खुलेआम सराहना नहीं मिलती है। सदाचारी निर्वासित होते हैं और तरह-तरह के कष्ट झेलते हैं, जबकि कदाचारी महलों में समृद्धि के पालने में झूलते हैं। यह शायद इसलिए कि जिन्हें हम सदाचारी कहते हैं, उनके अंदर भी कई दुर्बलताएं हैं जिनकी वजह से उनके व्यक्तित्व में कई खामियां पैदा हो जाती हैं।
मसलन, जब युधिष्ठिर को मालूम था कि जुआ खेलने का आमंत्रण उसे बर्बाद करने के लिए रची गई साजिश का हिस्सा है तो उन्होंने ऐसे खेल में शामिल होने से इंकार क्यों नहीं कर दिया? लेखक के अनुसार, आज के संदर्भ में देखा जाए तो महाभारत की सबसे ज्यादा प्रासंगिक पात्र द्रौपदी नजर आएगी। उनका मानना है कि द्रौपदी का उदाहरण सभी लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में स्वतंत्र नागरिकों के लिए एक प्रेरणा है। राजा के धर्म के बारे में उसके सवालों से नागरिकों को यह हौसला मिलना चाहिए कि वे अधिकारियों की निष्ठा पर अंगुली उठा सकें। खासकर तब, जब लोग अपने चारों ओर व्याप्त शासन के निठल्लेपन से लगातार जूझ रहे हों। सरकारी अधिकारियों की गैर-जिम्मेदारी आम बात है। ऐसे में क्या किया जाना चाहिए? जब कोई चारा नहीं बचे तो नागरिकों को पांडवों की तरह भ्रष्टों के खिलाफ कुरुक्षेत्र जैसा युद्ध छेड़ देना चाहिए।
दरअसल, द्रौपदी के प्रश्नों के जरिये चुप्पी की अनैतिकता को समझा जा सकता है। जब ईमानदार व्यक्ति अपनी आवाज उठाने के दायित्व में असफल होते हैं, तो वे धर्म को आहत कर रहे होते हैं। इसलिए द्रौपदी की हृदय विदारक पुकार सुनकर भीष्म को वैधानिक जटिलताओं पर तर्क करने के बजाय दुशासन को जमीन पर पटक देना चाहिए था। महाभारत का संदेश स्पष्ट है।
हमें अपने जीवन में न तो दुर्योधन की अनैतिकता की राह पकड़नी चाहिए और न ही युधिष्ठिर की अति-नैतिकता का रास्ता क्योंकि दोनों ही हमें अति की ओर ले जाते हैं। इसलिए व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन में मध्यम मार्ग ही उत्तम है। अगर युधिष्ठिर धर्म की अति-नैतिक व्याख्या में नहीं उलझे होते तो शायद महाभारत का युद्ध नहीं हुआ होता, लेकिन ऐसा तो होना नहीं था और वही हुआ जो होना चाहिए था।
मौजूदा संदर्भ में महाभारत की नई व्याख्या पेश करने के साथ-साथ लेखक की यह कृति एक और मायने में महत्वपूर्ण है। दरअसल, इस लेखक की ही तरह इस देश में ढेर सारे ऐसे धर्मनिरपेक्ष विद्वान मिल जाएंगे जो महाभारत या रामायण को एक धर्मग्रंथ मानते हैं और उसे पढ़ने वालों को दक्षिणपंथी। गुरचरण दास ने इसे खुलकर स्वीकार किया है कि स्कूल के दिनों में उनका भी यही मानना था, लेकिन सेवानिवृत्त होने के बाद जब उन्हें धर्म और मोक्ष को लेकर मन में उठने वाले तमाम सवालों ने परेशान करना शुरू किया तो उन्होंने महाभारत की शरण लेने और उसे पूरा पढ़ने व समझने का फैसला किया।
हालांकि, शुरू में मित्रों ने भी उनकी आलोचना ही की और ताने दिए कि वह दक्षिणपंथी हो गए हैं, लेकिन इससे गुरचरण दास की आस्था नहीं डिगी और उन्होंने अपनी इस पुस्तक के जरिये उन सभी धर्मनिरपेक्ष विद्वानों को जवाब दे दिया है।
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