स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी 1863 को कोलकाता में हुआ था। संगीत, साहित्य और दर्शन में स्वामी विवेकानंद को विशेष रुचि..
मोदी बनाम राहुल : पटेल चले गांधी की राह — वेद प्रताप वैदिक
नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी, दोनों को अमेरिकी विशेषज्ञ एक ही
डंडे से हांक रहे हैं| दोनों में जमीन-आसमान का अंतर है| दोनों को वे
अभी से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर रहे हैं| मानो कि जैसे
यह चुनाव अमेरिका के राष्ट्रपति का हो, न कि भारत के प्रधानमंत्री का|
वे भूल तो नहीं गए कि भारत में प्रधानमंत्री का प्राय: चुनाव नहीं
होता, नामजदगी होती है| संसद के चुनाव में जीती हुई पार्टी अपने नेता
के नाम की घोषणा कर देती है| राष्ट्रपति उसे ही प्रधानमंत्री पद की
शपथ दिला देता है|
प्रधानमंत्र्ी का चुनाव होता है लेकिन कभी-कभी, जैसा कि इंदिरा गांधी
और मोरारजी देसाई के बीच हुआ था या विश्वनाथप्रताप सिंह और चंद्रशेखर
के बीच होना था| वह भी पार्टी का अंदरूनी मामला होता है| अटलबिहारी
वाजपेयी या मनमोहन सिंह के खिलाफ उनकी संसदीय पार्टी में क्या कोई
उम्मीदवार खड़ा हुआ था? जाहिर है कि कांग्रेस पार्टी में आज राहुल
गांधी के खिलाफ चुनाव लड़ने की हिम्मत किसी में नहीं है| किसी
प्राइवेट लिमिटेड कंपनी में चेयरमेन या उसके बेटे के खिलाफ मुंह खोलने
की इज़ाजत किसी को होती है क्या? अभी आम चुनाव तो बहुत दूर हैं, यदि
राहुल कल प्रधानमंत्री बनना चाहें तो उन्हें कौन रोक सकता है?
कांग्रेस-जैसी लौह-अनुशासनवाली पार्टी दुनिया में कोई नहीं है| उसके
पास विनम्र और आज्ञाकारी नेताओं और कार्यकर्त्ताओं की जैसी फौज है,
वैसी तो हिटलर और मुसोलिनी के पास भी नहीं थी| आज्ञापालन और समर्पण
में कांग्रेस के नेता और कार्यकर्ता सोवियत संघ और चीन को भी मात करते
हैं| इन दोनों देशों की कम्युनिस्ट पार्टियों में भी सत्तारूढ़
गिरोहों के विरूद्घ समय-समय पर प्रश्न-चिन्ह लगते रहे और बगावतें होती
रहीं लेकिन कांग्रेस में ऐसा तभी होता है, जब नेता धराशायी हो जाए,
जैसे कि 1977 में हुआ था| इटली, जर्मनी, सोवियत और चीन की इन
पार्टियों में तानाशाही जरूर चली लेकिन मुसोलिनी, हिटलर, स्तालिन और
माओ की ऐसी हिम्मत कभी नहीं हुई कि वे अपनी पत्नी, बेटी या बेटे को
पार्टी पर थोप दें| इसीलिए यह प्रश्न निरर्थक है कि कांग्रेस का
प्रधानमंत्र्ी का अगला उम्मीदवार कौन होगा ? कौन होगा, यह सबको पता
है| हॉं, यह प्रश्न जरूर सार्थक है कि संसद के अगले चुनाव में
कांग्रेस पार्टी जीत पाएगी या नहीं?
कांग्रेस की जो हालत आज है, यदि अगले दो-ढाई वर्ष वही बनी रही तो
राहुल की उम्मीदवारी अपने आप खटाई में पड़ सकती है| पिछले छह माह में
भारतीयों के दिलों पर राज करने के अनंत अवसर आए लेकिन राहुल ने एक के
बाद एक सभी गवां दिए| अण्णा के अनशन तोड़ने के दिन राहुल ने संसद में
जो लिखा हुआ भाषण पढ़ा, उसने उनकी रही-सही छवि को भी शीर्षासन करवा
दिया| लोग समझ गए है कि राहुल नेता नहीं, सिर्फ अभिनेता हैं, वह भी
कच्चे-पक्के! अब तक वे जो लोक-लुभावन करतब दिखाते रहे, वे दूसरों के
इशारे पर की गई नौटंकियां भर थी| यह देश इतना बुद्घू नहीं है कि वह
ऐसे लोगों के हाथ में अपनी लगाम थमा दे| कांग्रेस और देश इस समय
सचमुच एक प्रधानमंत्री की तलाश में हैं लेकिन राहुल ने अपने आचरण से
सिद्घ कर दिया कि कांग्रेस और देश दोनों को ही फिलहाल मनमोहनसिंह को
बर्दाश्त करना पड़ेगा| राहुल के उम्मीदवार बनने का सवाल तो तब उठेगा,
जब कांग्रेस जीतेगी| जीती तो वह पिछले चुनाव में भी नहीं थी| केवल
सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी| इस बार इस संभावना पर भी लगातार बादल
छाते जा रहे हैं|
जहॉं तक नरेंद्र मोदी का सवाल है, वे किस्मत के धनी हैं| 2002 के
गुजरात के रक्त-स्नान के बावजूद कोई मुख्यमंत्री इतने प्रचंड बहुमत से
जीत सकता है, इसकी कल्पना स्वयं नरेंद्र मोदी को भी नहीं रही होगी|
जिस गुजरात पर राजधर्म के उल्लंघन का आरोप स्वयं प्रधानमंत्री
अटलबिहारी वाजपेयी लगा रहे हों ओर सारे देश के सेक्युलर तत्व मोदी की
जान पर आए हुए हों, उस गुजरात ने बता दिया कि उसकी खिचड़ी अलग पकेगी|
मोदी-विरोधी अभियान को गुजरात की जनता ने अभी तक छुआ भी नहीं है|
गुजरात के मुसलमान भी अब इस अभियान में ज्यादा मुखर नहीं हैं, सकि्रय
नहीं हैं| वे लगभग उसी लकीर पर चल रहे हैं, जिसके कारण मौलाना गुलाम
मुहम्मद वस्तानवी को देवबंद से इस्तीफा देना पड़ा था| सिर्फ हिंदू
सेक्यूलरवादी गड़े मुर्दे उखाड़ने पर तुले हुए हैं| कई बार उनकी भी
पोल खुल चुकी है लेकिन ऐसा लगता है कि भारत के मीडिया में अभी भी उनका
कुछ असर बाकी है|
यदि गुजरात की जनता पर उनका कुछ असर होता तो वह दूसरी बार मोदी को
नहीं चुनती लेकिन 2002 के बाद मोदी ने कुछ अजूबा ही किया| मुसलमानों
के नर-संहार के कारण मोदी के विरूद्घ जो लकीर गुजरात में खिंच गई थी,
मोदी ने उस लकीर के मुकाबले एक इतनी बड़ी लकीर खींच दी कि वह सारे
भारत में चमचमाने लगी| जो काम एक अर्थशास्त्री, पीएचडी प्रधानमंत्री
नहीं कर सका, वह काम संघ के एक साधारण स्वयंसेवक ने कर दिखाया|
वाम-दक्ष करनेवाले चड्डी-टोपी के स्वयंसेवक से क्या आशा की जा सकती
थी? प्रधानमंत्री 9-10 प्रतिशत आर्थिक उन्नति के सपने देखते रहे और इस
मुख्यमंत्री ने गुजरात को 11 प्रतिशत से भी आगे बढ़ा दिया| अब तक मोदी
की ईमानदारी और निजी चरित्र् के बारे में वैसी ही प्रमाणिकता है, जैसे
मनमोहन सिंह की है| यदि मोदी की लकीर सचमुच मनमोहनसिंह से ज्यादा लंबी
नहीं होती तो अमिताभ बच्चन, मुकेश अंबानी, टाटा और दुनिया की कई
प्रसिद्घ कंपनियों के कर्ता-धर्ता अहमदाबाद को अपना गंतव्य क्यों
बनाते?
उच्चतम न्यायालय के निर्णय ने मोदी को बरी नहीं किया है लेकिन उनकी उस
लंबी लकीर पर कई नए दीप-स्तंभ खड़े कर दिए हैं| निचली अदालत मोदी के
बारे में क्या फैसला करेगी, कुछ पता नहीं लेकिन कोई भी फैसला मोदी की
लकीर को अब छोटा नहीं कर पाएगी, क्योंकि लोकतंत्र् में अंतिम फैसला तो
जनता ही करती है| राज्यपाल कमला बेनीवाल ने मोदी पर लोकायुक्त थोपकर
अपनी और लोकायुक्त, दोनों की छवि गिराई| मोदी का कद बढ़ाया| मोदी ने
तीन दिन के उपवास की घोषणा क्या की, वे अब सीधे जनता के अखाड़े में
पहुंच गए हैं मोदी के इस काम से भाजपा के सजावटी नेताओं में तो हड़कंप
मचेगा ही, बेचारे सेक्यूलरवादी भी पसोपेश में पड़ जाएंगें| वे इसे
प्रायश्चित-उपवास बता रहे हैं| लेकिन सरदार पटेल बने मोदी को अब गांधी
बनने की राह पर चलने से कौन रोक सकता है?
इसका अर्थ यह नहीं कि वे भाजपा के राहुल गांधी बन जाएंगें| भाजपा अभी
भी प्राइवेट लिमिटेड कंपनी नहीं बनी है| भाजपा में प्रधानमंत्र्ी पद
के लगभग आधा दर्जन उम्मीदवार हैं| वे एक दम हतोत्साहित होनेवाले नहीं
हैं| वे चाहेंगे कि गुजरात का जिन्न गुजरात की बोतल में ही बंद रहे
लेकिन यह उपवास उस बोतल के ढक्कन को उड़ा देगा| सारे देश का ध्यान इस
उपवास पर जाएगा| यह अगर प्रायश्चित भी समझा गया तो इसका फायदा नरेंद्र
मोदी को ही मिलेगा| मोदी के उपवास के मुकाबले अब शंकरसिंह वाघेला
उपवास करेंगे याने उपवास का उपहास करेंगे| ऐसा करके वे खुद को और
कांग्रेस को भी उपहास का पात्र् बना लेंगे|
नरेंद्र मोदी हर अवसर का लाभ उठा रहे हैं और राहुल गांधी हर अवसर खोते
जा रहे हैं| दोनों की तुलना कैसे हो सकती है? यदि मोदी गैर-भाजपा
नेताओं को स्वीकार्य नहीं हैं याने गुजरात के बाहर वोटखेंचू नहीं हैं
तो राहुल गांधी या सोनिया गांधी कौनसे वोटखेंचू हैं? एक विश्लेषक ने
आंकड़ों के आधार पर सिद्घ किया था कि पिछले चुनाव में मॉं-बेटे
जहां-जहां गए, वहां-वहां उद्वार कम, बंटाधार ज्यादा हुआ| इसके अलावा
10 साल की हुकूमत के अनुभव और नौटंकियों में क्या कोई अंतर नहीं है?
प्रधानमंत्री के उम्मीदवार तो दोनों बन सकते हैं लेकिन असली सवाल यह
है कि वास्तव में बनेगा कौन और जो बनेगा, वह उस पद के योग्य भी होगा
या नहीं ?
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