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9/11 की दसवीं बरसी पर ओबामा ने अपने भाषण में कहा कि हमने ओसामा को मारकर बदला ले लिया। यह शब्द अमेरिका और हममें फर्क बताने को काफी है। क्या आप कभी भारतीय नेताओं से ऐसे किसी बयान की कल्पना कर सकते हैं कि हमने नक्सलियों, अफजल या कसाब को मारकर दंतेवाड़ा, दिल्ली या मुंबई हमले का बदला ले लिया। क्या हम यह कह सकते हैं कि अमेरिका में लोकतंत्र नहीं है और वहां मानवाधिकार की बातें बढ़-चढ़कर नहीं होतीं। तथ्य तो यह है कि आधुनिक मानवाधिकार की बातें तो शुरू ही अमेरिका की अगुआई में हुई हैं। उसकी जेबी संस्था मानी जाने वाली संयुक्त राष्ट्र के चार्टर पर मानवाधिकारवादियों की रोजी-रोटी चल रही है, लेकिन फर्क बस यह है कि वह कभी आतंकियों के मानवाधिकार को अपनी जनता के जीने के अधिकार पर भारी नहीं पड़ने देना चाहता।
जीरो टॉलरेंस की नीति के तहत अमेरिका अपनी जनता की जान की हिफाजत के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार है। कैदियों के मानवाधिकार के लिए जेनेवा कन्वेंशन भी अमेरिका की अगुआई में अस्तित्व में आया था फिर भी वह अपने देश के विरुद्ध युद्ध करने वाले कैदियों को कभी हमारी तरह वीआइपी का दर्जा नहीं देता। सवाल अमेरिका का अंधानुकरण कर उन्हीं के जैसा हो जाने का बिल्कुल नहीं है और न ही उसके सभी कृत्यों को सही साबित करने का है। सवाल तो बस यह है कि आखिर हम भी उसकी तरह कम से कम अपने नागरिकों के जान और माल की सुरक्षा को सर्वोपरि मानकर उसकी हिफाजत को वोट की राजनीति से ऊपर क्यों नहीं रख पाते?
दिल्ली हाईकोर्ट में हुए बम विस्फोट एवं देश में बढ़ती नक्सल चुनौतियों की पृष्ठभूमि में राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक में इस बात पर सर्वानुमति बनती दिखी कि नक्सलवाद आज देश के समक्ष बाहरी आतंकवाद से भी बड़ी चुनौती है। छत्तीसगढ़ के आंकड़ों से यही साबित होता है कि नक्सली हिंसा में आतंकी हमलों से दस गुना ज्यादा नागरिक हताहत होते हैं। देश के 60 नक्सल प्रभावित जिलों के जिलाधिकारियों और सचिवों की बैठक में खुद गृह मंत्री चिदंबरम ने माना कि नक्सली ज्यादा बड़े दुश्मन हैं। इनकी हिंसा ज्यादा बड़ी समस्या है, लेकिन अफसोस यह कि इतनी कवायद के बाद भी वह न तो कोई कड़ा संदेश दे पाए और न ही वोट की राजनीति से खुद को अलग रख पाए। बार-बार अपना रुख बदलने वाले चिदंबरम ने फिर से इस राष्ट्रीय चुनौती को राज्यों के पाले में डालकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली। ग्रामीण विकास मंत्री के लिए तो बस इन योजनाओं के प्रचार-प्रसार के लिए मोटे वेतन पर दिल्ली से सैकड़ों युवाओं को भेजना ही इसका हल लगा। नक्सलवाद के खात्मे पर बड़ी रुकावट सरकार की लुंजपुंज नीति के अलावा उसकी राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी तो है ही, लेकिन उससे भी बड़ी चुनौती वह बुद्धिजीवी हैं जो कभी अमेरिका जाकर तो कभी बस्तर में काम करने वाले व्यापारियों-उद्योगपतियों से वसूले गए लेवी में से हिस्सा पाकर सरकारों के विरुद्ध वैचारिक युद्ध छेड़ते हैं, उसे बदनाम करते हैं और उनके मनोबल को तोड़ने का काम करते हैं। ऐसा ही एक मामला दंतेवाड़ा के लिंगाराम कोडोपी का सामने आया है।
हाल में बस्तर के किरंदुल के एक ठेकेदार द्वारा भारतीय स्टेट बैंक से पंद्रह लाख रुपये निकालकर लिंगाराम के माध्यम से नक्सलियों तक पहुंचाते समय पुलिस ने उसे रकम के साथ रंगे हाथ गिरफ्तार कर लिया। इस मामले में वहां के एक एनजीओ की भूमिका भी संदेह के घेरे में है, जिसकी पड़ताल की जा रही है। यह वही लिंगाराम है, जो कल तक और आज तक इन बुद्धिजीवियों का चहेता था। पिछले दिनों वनवासी चेतना आश्रम एनजीओ चलाने वाले संदिग्ध हिमांशु कुमार और हाल ही में धोखाधड़ी के आरोप में टीम अन्ना से निकाले गए स्वामी अग्निवेश की अगुआई में झूठ पर झूठ गढ़कर लिंगाराम को ऐसे पेश किया गया कि उसे प्रदेश की पुलिस प्रताडि़त कर रही है और उसका एनकाउंटर करना चाहती है। देश ही नहीं, विदेशी मीडिया में भी इसे प्रचारित किया गया। एक कथित पीडि़त महिला जो लिंगाराम की रिश्तेदार बताई जा रही थी, को भी सामने लाकर पुलिस को हर स्तर पर बदनाम किया गया। अंतत: वे सारी बातें तो गलत निकली ही और अब जब वह नक्सलियों तक पहुंचाने के लिए लेवी वसूलते रंगे हाथ पकड़ा गया है तो फिर ऐसे लोग इस प्रकरण को भी झूठा साबित करने जी-जान से प्रयासरत हैं। कुछ दिन पहले ही विकिलीक्स द्वारा खुलासा किया गया कि लिंगाराम नक्सलियों तक लेवी के रूप में रकम पहुंचाते रहे हैं।
इतने सारे कडि़यों के एक साथ जुड़े होने के बाद भी क्या देश उन मुट्ठी भर बुद्धिजीवियों की बात पर भरोसा करे जिनका खुद बस्तर में ही कोई जनसमर्थन नहीं है। जिन्हें वहां के आदिवासियों द्वारा ही बार-बार खदेड़ा जा रहा है या हमें उस शासन पर भरोसा करना होगा जिसे बार-बार जबरदस्त जनादेश देकर आदिवासी चुनते हैं। इससे पहले भी केंद्र सरकार की कंपनी एनएमडीसी द्वारा नक्सलियों तक पैसा पहुंचाने की बात सामने आई थी। इस बात को छत्तीसगढ़ का जनसामान्य भी बेहतर जानता है कि कोई भी कंपनी या कोई भी ठेकेदार बिना नक्सलियों को लेवी दिए अपना काम वहां कर ही नहीं सकती है। देश के सबसे पिछड़े इलाके दंतेवाड़ा से आने के बावजूद मास कम्युनिकेशन में उच्च शिक्षा प्राप्त लिंगाराम जैसे लोग एक उम्मीद की तरह होने चाहिए थे। ऐसे युवाओं की आज देश को जरूरत भी है। ऐसी आदिवासी प्रतिभाओं के लिए विभिन्न क्षेत्रों में अवसरों की अपार संभावनाएं हैं, लेकिन बस्तर में काम करने वाले बाहर के बुद्धिजीवियों और अलोकतांत्रिक समूहों की क्षुद्र लिप्सा के लिए गुमराह होने का उदाहरण मात्र बनकर रह गया वह प्रतिभाशील युवा।
आज जरूरत इस बात की है कि ऐसे बुद्धिजीवियों से निपटकर लिंगाराम जैसे लोगों को इनके हाथ की कठपुतली बनाने से बचाया जाए। पी. चिदंबरम ने नक्सलवाद को आतंकवाद से बड़ा दुश्मन माना है, परंतु पहली जरूरत इस बात की है कि आगे भी इस बात पर कायम रहा जाए। इसे राज्यों का मामला मानकर अपनी जिम्मेदारियों से पीछे नहीं हटा जाना चाहिए। अमेरिका की तरह हमें दुश्मनों से बदला लेना होगा, क्योंकि भारतीय मनीषी भी यही कहते हंै कि अपराधियों को सुधरने का मौका एक सीमा तक ही दिया जाना चाहिए। अपने-अपने काम पर घर से निकले निर्दोष लोगों, बच्चों को बेवजह अनाथ बना देने वाले नागरिकों को अकारण ही मार देने वाले लोगों से मौत का हिसाब लिया ही जाना चाहिए। विकास से नक्सल समस्या का समाधान नहीं होने वाला, बल्कि नक्सल समस्या के समाधान के बाद विकास की शुरुआत होगी। यदि ऐसा नहीं होता है तो देश के दक्षिणी कोने तिरुपति से नेपाल के काठमांडू तक गलियारा बनाने की बात रुकने वाली नहीं है। यह रास्ता चीन तक जाता है और उसे अपना चेयरमैन मानने वाले लोगों ने चेहरा जरूर बदल लिया है, लेकिन वे खत्म नहीं हुए हैं। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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