पाकिस्तान के जन्म से पूर्व जन्म लेने वाला पाकिस्तानी कैसे हुआ?

Published: Sunday, Feb 17,2013, 19:25 IST
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लाहौर में रावी नदी, कांग्रेस अधिवेशन, पूर्ण स्वराज, पाकिस्तानी

विस्थापन वैश्विक घटनाक्रम है जो आदिकाल से वर्तमान जारी है। विस्थापन की परिस्थितियां भिन्न हो सकती है लेकिन विस्थापन की पीड़ा एक ही होती है। विभाजन और विस्थापन का गहरा संबंध है। अपनी मातृभूमि, अपना घोसला, अपना परिवेश पशु-पक्षी भी नहीं छोड़ना चाहते तो विस्थापित मानव मन की पीड़ा को समझा जा सकता है। लेकिन आश्चर्य होता जब स्वयं को समझदार बताने वाले विस्थापित और विदेशी का अंतर नहीं समझ पाते। ऐसे में यह प्रश्न उठना चाहिए कि क्या तुच्छ विरोध के लिए अपनों को भी विदेशी बताने वालों को देशभक्त कहा जा सकता है?

पिछले दिनों एक सिरफिरे ने फेसबुक पर माननीय प्रधानमंत्री जी को ‘पाकिस्तान की पैदाइश’ कहा तो मैंने उसका कड़ा प्रतिवाद करते हुए भारतीय संविधान की याद दिलाई जिसके अनुसार विभाजन से पूर्व अखंड भारत में जन्मा हर व्यक्ति भारतीय है, यदि उसने अपनी नागरिकता का त्याग न किया हो।

वह सिरफिरा ही क्या जो आसानी से अपनी गलती को सुधार लें। दो और दो पांच कहने वालो को कोई कहाँ समझा पाया है। उस सिरफिरे का फतवा था कि जो वर्तमान पाकिस्तान के भू भाग पर कभी भी जन्मा हो, वह पाकिस्तान की पैदाइश है। इसपर मैंने उससे पूछा, ‘पाकिस्तान के जन्म से पूर्व जन्म लेने वाला पाकिस्तानी कैसे हुआ? माननीय प्रधानमंत्री जी का जन्म तो पाकिस्तान की उत्पति 1947 से 15 वर्ष पूर्व 1932 में हुआ तो आप उन्हें पाकिस्तान की पैदाइश कैसे कह सकते हैं?’ उसने अपनी रट नहीं छोड़ी तो मुझे पूछना पड़ा-

# शहीद-ए-आजम भगतसिंह का जन्म 27 सितंबर, 1907 को लायलपुर में बंगा गाँव (अब पाकिस्तान) में हुआ था। क्या वे भी आपकी परिभाषा के अनुसार पाकिस्तानी थे?

# लाला लाजपत राय ने 30 अक्टूबर, 1928 को लाहौर में साइमन कमीशन के विरुद्ध आन्दोलन का भी नेतृत्व करते हुए अंग्रेज़ों की लाठियां झेली थी जो उनकी शहादत का कारण बनी थी। क्या आप शेर-ए-पंजाब लाला लाजपतराय को भी पाकिस्तानी कहेंगे?

# अविभाजित भारत के लाहौर शहर में 1895 में स्थापित पंजाब नैशनल बैंक को ऐसा पहला भारतीय बैंक होने का गौरव प्राप्त है जो पूर्णतः भारतीय पूँजी से प्रारम्भ किया गया था। क्या आप पंजाब नैशनल बैंक जिसकी भारत भर में हजारों शाखाएं पाकिस्तानी बैंक है?

# भारत को विदेशी चंगुल से मुक्त करवाने में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले भाई परमानंद जी जिन्हें मृत्युदंड की घोषणा की थी, का जन्म 4 नवम्बर 1876 ई. को झेलम में हुआ था। उन्हें दिसम्बर, 1915 में कालापानी भेजा गया। उनके बारे में आपका विचार क्या है?

# 1929 के लाहौर में रावी नदी के तट पर हुए कांग्रेस अधिवेशन में पहली बार ‘पूर्ण स्वराज’ की मांग की गई थी। क्या यह मांग भी पाकिस्तानी थी?

# हम अक्सर नालंदा और तक्षशीला को विश्व के प्राचीनतम विश्व विद्यालयों बताते हैं। तक्षशीला हिन्दू एवं बौद्ध दोनों के लिये महत्व का केन्द्र था। चाणक्य यहाँ पर आचार्य थे। 405 ई में फाह्यान यहाँ आया था। तक्षशिला वर्तमान समय में पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद से 35 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। तक्षशिला में स्थित संग्रहालय में पुरातात्विक महत्व के हिन्दू, बौद्ध और जैन मंदिरों और उच्च विकसित शहरी सभ्यता के अनेक अवशेष उपलब्ध हैं। यह भी स्मरणीय है कि झेलम नदी के तट पर बसे तक्षशिला के नजदीक ही राजा पोरस ने 326 ईसवीं पूर्व. सिकंदर (अलेक्जेंडर) को रोका था। क्या आप तक्षशीला के गौरव को पाकिस्तानी कहेंगे?

ऐसे अनेक प्रश्न और भी हैं जिनका उत्तर न उनके पास था और नही किसी दूसरे सिरफिरे के पास। परंतु सिरफिरे कम नहीं हैं। इसी सप्ताह सत्तारुढ़ दल के एक पदाधिकारी ने विपक्षी नेता लाल कृष्ण आडवाणी को पाकिस्तानी घोषित कर न जाने अपने किस धर्म-कर्तव्य का पालन किया। हद तो तब हो गई जब आडवाणी जी के समर्थन में बोलने वालों ने मनमोहन, गुजराल आदि के बारे में यही सवाल उछाल दिए।

यह ऐतिहासिक तथ्य है कि भारत विभाजन दुनिया की सबसे कष्टकारी दुर्घटना थी जिसमें अब तक का सबसे बड़ा नरसंहार हुआ। सदियों के भाईचारे पर अमानुषता हावी हो गई तो धर्म पर राजनीति। धर्म के आधार पर बने पाकिस्तान में असुरक्षित लोगों की भारत और जन्नत में बसने की चाहत लेकर पाकिस्तान जाने वालों की मनः स्थिति को राजनैतिक लोग नहीं समझ सकते।

अपनी पहचान रूपी धर्म और राष्ट्र को अक्षुध रखने के लिए उस पार में अपना सबकुछ लुटाकर भारत में इस पार आई पीढ़ी के अनेक लोग आज भी जिन्दा हैं जिन्हें शिकायत है कि उनसे स्वयं महात्मा गांधी ने वायदा किया था कि ‘पाकिस्तान मेरी लाश पर बनेगा’ सभी बापू के उस वचन के कारण निश्चिंत थे और अशांति को अस्थाई दौर मानते थे लेकिन सीमाओं के बंटवारे ने दिलों को बांट दिया तो दुष्स्वप्न हकीकत बन गया। ऐसे में बहुत बड़ी जनसंख्या की अदला-बदली हुई।

भारत आने वाले लोग स्वाभाविक है हिन्दू थे। जो लोग वहीं रहना चाहते थे उन्हें धर्मान्तरित होना पड़ा। वे लोग जिन्हें स्वयं के भारतीय होने का फ़ख्र था वे अभारत बना दिये गए उस भूभाग पर कैसे रहते? ऐसे में भारतीय बने रहने की वे कोई भी कीमत चुकाने को तैयार थे। खून की नदियों को लांघते हुए लाखों लोगों ने घोर कष्ट हंसते-हंसते सहे। अपने ही देश में शरणार्थी बनना स्वीकार किया लेकिन वे इस अपमान को कैसे सहे कि स्वयं को जिम्मेवार बताने वाले कुछ सिरफिरे उन्हें विदेशी बताते हैं। क्या ऐसे सिरफिरों को याद दिलाना पड़ेगा कि जिन्ना भारत में जन्मे थे लेकिन आज तक शायद ही किसी पाकिस्तानी ने उन्हें विदेशी कहा हो। नवाज शरीफ और मुशर्रफ भी इस पार जन्मे लेकिन क्या उन्हें कभी ‘भारत की पैदाइश’ कहा गया? अपनी यात्रा के दौरान मुशर्रफ पुरानी दिल्ली के उस घर भी गए जहा. उनका जन्म हुआ था मगर उस तानाशाह तक पर एक भी अंगुली नहीं उठी। लेकिन हम? हम तो अपनों को गैर-साबित करने पर तुले हैं। विस्थापन और विदेशी के अंतर को जानबूझ कर दरअंदाज कर रहे हैं? आश्चर्य है कि सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बावजूद करोड़ों घुसपैठियों के मुद्दे पर खामोश लोग विस्थापितों को विदेशी बताने का अपराध कर रहे हैं।

तथ्य गवाह है- विस्थापन हमेशा की तरह आज भी जारी है। कभी विकास के नाम पर तो कभी असुरक्षा और विनाश के भय के कारण। टिहरी बांध सहित लगभग सभी बांधों के निर्माण के लिए हजारों एकड़ डूब में आ गई तो लाखों लोगों का विस्थापन हुआ था। क्या इनके दूसरे स्थान पर बसने को विदेश बसना कहा जा सकता है? क्या रोजी-रोटी के लिए उत्तरप्रदेश, बिहार, उड़ीसा अथवा देश के किसी अन्य भाग के गरीबों को दिल्ली, मुम्बई या अन्यत्र विदेशी कहा जाएगा? तो फिर किस मुंह से हिंदीभाषियों को मुम्बई से खंदेड़ने वालों को गलत कहरेगें? क्या ऐसा करना देशभक्तों का मनोबल नहीं तोड़ेगा? फिर हम क्यों कहते हैं ‘कश्मीर से कन्याकुमार तक, कच्छ से करीमनगर तक सारा भारत एक है।’ यदि भारत में जन्मा, भारतीय बने रहने के लिए महान कष्ट सहने वालों पर हम स्वयं विदेश का ठप्पा लगायेगे तो तो फिर हमारी राष्ट्रीयता मजाक बनकर रह जाएगी। कौन कहेगा हम विवेकवान हैं। क्या इसीदिन के लिए जाति, धर्म, प्रान्त, भाषा, भूषा का भेद भुलाकर शहीदों ने कुर्बानियां दी थी?

यहाँ यह याद दिलाना चाहता हूँ कि राजनीति में विदेशी मूल के मुद्दे पर तीखी बहस के दौर में दैनिक हिन्दुस्तान में प्रकाशित अपने लेख में लब्घप्रतिष्ठित साहित्यकार स्व. कमलेश्वर ने प्रधानमंत्री रहे श्री इन्द्र कुमार गुजराल, उपराष्ट्रपति रहे श्री कृष्णकांत सहित भाजपा नेता श्री लालकृष्ण आडवाणी को विदेशी कहा था तो मैंने उन्हें एक पत्र भेजकर इसका प्रतिवाद किया था। उसके कुछ ही दिन बाद एक कार्यक्रम में उनसे भेंट हुई तो वे मुझे एकान्त में ले गये और अपनी गलती स्वीकार करते हुए जो कुछ कहा वे शब्द उनके कद को बहुत बड़ा बनाते हैं। आज कमलेश्वर जी हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी महानता सदैव रहेगी। यह वैश्विक मान्यता है- गलती पर लगातार गर्व करने वाला मूर्ख और गलती का अहसास होते ही उसे स्वीकारने वाला महान होता है।

आवश्यकता इस बात की है कि विदेशी और विस्थापित के अंतर को समझा जाए। एक ओर हम अनिवासी भारतीयों को भारत की नागरिकता दे रहे तो दूसरी ओर राष्ट्रहित में अपनी पहचान को भी कुर्बान कर देने वालों को विदेशी घोषित कर आखिर क्या साबित करना चाहते हैं? ये लोग किसी भी देशभक्त से ज्यादा भारतीय हैं। यदि हम सम्मान नहीं दे सकते तो उनका अपमान करने का अधिकार भी हमे नहीं हो सकता। आश्चर्य है कि कारण-अकारण सक्रिय रहने वाला इलैक्ट्रोनिक मीडिया खामोश है। क्या यह विषय उन्हें आंदोलित नहीं करता? स्पष्ट है कि इस मुद्दे को उठाने से उसको कोई व्यावसायिक लाभ मिलने वाला नहीं है। परंतु विदेशी मूल लेकिन भारतीय बहू सम्मानित कांग्रेसाध्यक्षा को चाहिए कि तत्काल प्रभाव से उस सिरफिरे को पार्टी से निष्कासित कर राष्ट्र के प्रति अपना सकारात्मक दृष्टिकोण एक बार फिर दिखाये। अखंड भारत की बात करने वाली भाजपा को भी अपने प्रवक्ताओं को राष्ट्रीयता का अर्थ सिखाना चाहिए, ताकि वे दिग्गी की तरह आतंकवादियों के साथ ‘श्री’ लगाने के अपराध न करें।

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