आरक्षण पर राजनीति ...

Published: Wednesday, Dec 19,2012, 00:52 IST
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राज्यसभा द्वारा सोमवार को भारी बहुमत से 117वाँ संविधान विधयेक के पास होते ही पदोन्नति मे आरक्षण विधेयक के पास होने का रास्ता अब साफ हो गया है। अब यह विधेयक लोकसभा मे पेश किया जायेगा। हलांकि इस विषय के चलते भयंकर सर्दी के बीच इन दिनो राजनैतिक गलियारों का तपमान उबल रहा था। परंतु इस विधेयक के चलते यह भी साफ हो गया कि गठबन्धन की इस राजनीति मे कमजोर केन्द्र पर क्षेत्रिय राजनैतिक दल हावी है। अभी एफडीआई का मामला शांत भी नही हुआ था कि अनुसूचित जाति एव जनजाति के लिये पदोन्नति मे आरक्षण के विषय ने जोर पकड लिया। एफडीआई को लागू करवाने मे सपा और बसपा जैसे दोनों दल सरकार के पक्ष मे खडे होकर बहुत ही अहम भूमिका निभायी थी, परंतु अब यही दोनों दल एक-दूसरे के विरोध मे खडे हो गये है। इन दोनों क्षेत्रीय दलो के ऐसे कृत्यो से यह एक सोचनीय विषय बन गया है कि इनके लिये देश का विकास अब कोई महत्वपूर्ण विषय नही है इन्हे बस अपने – अपने वोट बैंक की चिंता है कि कैसे यह सरकार से दलाली करने की स्थिति मे रहे जिससे उन्हे तत्कालीन सरकार से अनवरत लाभ मिलता रहे।  
   
2014 मे आम चुनाव को ध्यान मे रखकर सभी दलो के मध्य वोटरो को लेकर खींचतान शुरू हो गयी है। उत्तर प्रदेश के इन दोनों क्षेत्रीय दलो के पास अपना – अपना एक तय वोट बैंक है। एक तरफ बसपा सुप्रीमो मायावती ने राज्यसभा अध्यक्ष हामिद अंसारी पर अपना विरोध प्रकट करते हुए यूपीए सरकार से अनुसूचित जाति एव जनजाति के लिये आरक्षण पर पांचवी बार संविधान संशोधन हेतु विधेयक लाने हेतु सफल दबाव बनाते हुए एफडीआई मुद्दे से हुई अपने दल की धूमिल छवि को सुधारते हुए अपने दलित वोट बैंक को सुदृढीकरण करने का दाँव चला तो दूसरी तरफ सपा ने उसका जोरदार तरीके से विरोध जता करते हुए कांग्रेस और भाजपा के अगडो-पिछडो के वोट बैंक मे सेन्ध लगाने का प्रयास कर रही है।
 
इस विधेयक के विरोध मे उत्तर प्रदेश के लगभग 18 लाख कर्मचारी हडताल पर चले गये तो समर्थन वाले कर्मचारियो ने अपनी–अपनी कार्य अवधि बढाकर और अधिक कार्य करने का निश्चय किया। भाजपा के इस संविधान संशोधन के समर्थन की घोषणा करने के साथ ही उत्तर प्रदेश स्थित उसके मुख्यालय पर भी प्रदर्शन होने लगे। सपा सुप्रीमो ने यह कहकर 18 लाख कर्मचारियो की हडताल को सपा-सरकार ने खत्म कराने से मना कर दिया कि यह आग उत्तर प्रदेश से बाहर जायेगी और अब देश के करोड़ों लोग हडताल करेंगे। दरअसल मुलायम की नजर अब एफडीआई मुद्दे से हुई अपने दल की धूमिल छवि को सुधारते हुए अपने को राष्ट्रीय नेता की छवि बनाने की है क्योंकि वो ऐसे ही किसी मुद्दे की तलाश मे है जिससे उन्हे 2014 के आम चुनाव के बाद किसी तीसरे मोर्चे की अगुआई करने का मौका मिले और वे अधिक से अधिक सीटो पर जीत हासिल कर प्रधानमंत्री बनने का दावा ठोंक सके।

मुलायम को अब पता चल चुका है कि दलित वोट बैंक की नौका पर सवार होकर प्रधानमंत्री के पद की उम्मीदवारी नही ठोंकी जा सकती अत: अब उन्होने अपनी वोट बैंक की रणनीति के अंकगणित मे एक कदम आगे बढते हुए अपने 'माई' (मुसलमान-यादव) के साथ-साथ अपने साथ अगडॉ-पिछडो को भी साथ लाने की कोशिशे तेज कर दी है। उनकी सरकार द्वारा नाम बदलने के साथ-साथ कांशीराम जयंती और अम्बेडकर निर्वाण दिवस की छुट्टी निरस्त कर दी जिससे दलित-गैर दलित की खाई को और बढा दिया जा सके परिणामत: वो अपना सियासी लाभ ले सकने मे सफल हो जाये। दरअसल यह वैसे ही है जैसे कि चुनाव के समय बिहार मे नीतिश कुमार ने दलित और महादलित के बीच एक भेद खडा किया था ठीक उसी प्रकार मुलायम भी अब समाज मे दलित-गैर दलित के विभाजन खडा कर अपना राजनैतिक अंकगणित ठीक करना चाहते है।

कांग्रेस ने भी राज्यसभा मे यह विधेयक लाकर अपना राजनैतिक हित तो साधने के कोई कसर नही छोडा क्योंकि उसे पता है कि इस विधेयक के माध्यम से वह उत्तर प्रदेश मे मायावती के दलित वोट बैंक मे सेन्ध लगाने के साथ-साथ पूरे देश के दलित वर्गो को रिझाने मे वह कामयाब हो जायेंगी और उसे उनका वोट मिल सकता है। वही देश के सवर्ण-वर्ग को यह भी दिखाना चाहती है कि वह ऐसा कदम मायावती के दबाव मे आकर उठा रही है, साथ ही एफडीआई के मुद्दे पर बसपा से प्राप्त समर्थन की कीमत चुका कर वह बसपा का मुहँ भी बन्द करना चाहती है। भाजपा के लिये थोडी असमंजस की स्थिति जरूर है परंतु वह भी सावधानी बरतते हुए इस विधेयक मे संशोधन लाकर एक मध्य-मार्ग के विकल्प से अपना वोट बैंक मजबूत करने की कोशिश मे है। दरअसल सपा-बसपा के बीच की इस लडाई की मुख्य वजह यह है कि जहाँ एक तरफ मायावती अपने को दलितो का मसीहा मानती है दूसरी तरफ मुलायम अपने को पिछ्डो का हितैषी मानते है। मायवती के इस कदम से मुख्य धारा मे शामिल होने का कुछ लोगों को जरूर लाभ मिलेगा परंतु उनके इस कदम से कई गुना लोगों के आगे बढने का अवसर कम होगा जिससे समाजिक समरसता तार-तार होने की पूरी संभावना है परिणामत: समाज मे पारस्परिक विद्वेष की भावना ही बढेगी।
 
समाज के जातिगत विभेद को खत्म करने के लिये ही अंबेडकर साहब ने संविधान मे जातिगत आरक्षण की व्यवस्था की थी परंतु कालांतर मे उनकी जातिगत आरक्षण की यह व्यवस्था राजनीति की भेंट चढ गयी। 1990 मे मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू करने के निर्णय ने राजनैतिक दलो के राजनैतिक मार्ग को और प्रशस्त किया परिणामत: समूचा उत्तर प्रदेश इन्ही जातीय चुनावी समीकरणो के बीच फंसकर विकास के मार्ग से विमुख हो गया। इन समाजिक - विभेदी नेताओ को अब ध्यान रखना चाहिये कि जातिगत आरक्षण को लेकर आने वाले कुछ दिनो आरक्षण का आधार बदलने की मांग उठने वाली है और जिसका समर्थन देश का हर नागरिक करेगा, क्योंकि जनता अब जातिगत आरक्षण-व्यवस्था से त्रस्त हो चुकी है और वह आर्थिक रूप से कमजोर समाज के व्यक्ति को आरक्षण देने की बात की ही वकालत करेगी।

बहरहाल आरक्षण की इस राजनीति की बिसात पर ऊँट किस करवट बैठेगा यह तो समय के गर्भ में है, परंतु अब समय आ गया है कि आरक्षण के नाम पर ये राजनैतिक दल अपनी–अपनी राजनैतिक रोटियां सेकना बंद करे और समाज - उत्थान को ध्यान में रखकर फैसले करे ताकि समाज के किसी भी वर्ग को ये ना लगे कि उनसे उन हक छीना गया है और किसी को ये भी ना लगे कि आजादी के इतने वर्ष बाद भी उन्हें मुख्य धारा में जगह नहीं मिली है। तब वास्तव में आरक्षण का लाभ सही व्यक्ति को मिल पायेगा और जिस उद्देश्य को ध्यान मे रखकर संविधान में आरक्षण की व्यवस्था की गयी थी वह सार्थक हो पायेगा।    

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