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क्या विश्व प्रसिद्द अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह ऐसे स्वार्थी-फैसले अपनी छवि सुधारने के लिए ले रहे हैं?
पैसे तो पेड़ पर उगते नहीं है...
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सरकार पर हो रहे चौतरफा हमलों का जबाब देने के लिए अब खुद एक अर्थशास्त्री के रूप में कमान संभाल ली है। परन्तु यह भी एक कड़वा सच है कि यूपीए-2 इस समय अपने कार्यकाल के सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। जनता की नजर में सरकार की साख लगातार नीचे गिरती जा रही है। सरकार के हठ के कारण उसके तृणमूल कांग्रेस जैसे अहम् सहयोगी अब सरकार से किनारा तो काट चुके है लेकिन दूसरे सहयोगी भी अवसर की राजनीति खेलते हुए सरकार से मोल-भाव करने की तैयारी में है। कांग्रेस की अगुआई वाली यूपीए-2 सरकार ने उसी आम-आदमी को महंगाई और बेरोजगारी से त्राहि-त्राहि करने पर मजबूर कर दिया है जिसके बलबूते पर वह सत्ता में वापस आई। सरकार ने आर्थिक सुधार के नाम पर जन-विरोधी और जल्दबाजी में लिए गए फैसलों के कारण सारा मुद्दा अब संसद से सड़क तक पहुँचा दिया है। समूचे विपक्ष के डीजल की कीमतों में बढ़ोत्तरी, घरेलू गैस पर सब्सिडी कम करने तथा प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश (एफडीआई) पर सरकार के फैसले के खिलाफ भारत बंद की आग अभी ठंडी भी नहीं हुई थी कि सरकार ने प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के कबिनेट के फैसले का नोटिफिकेशन जारी कर यह जताने की कोशिश की सरकार अपने फैसले से पीछे नहीं हटेगी।
IBTL Columns
खुदरा क्षेत्र सहित नागरिक उड्डयन तथा चार सार्वजनकि कंपनियों में प्रत्यक्ष पूंजी निवेश को सरकार द्वारा हरी झंडी देने के बाद राजनैतिक दलों में जैसी मोर्चाबंदी हुई है, उससे केंद्र की राजनीतिक स्थिरता पर अनिश्चिता का संकट मंडराना अब स्वाभाविक ही है। इस समय भारत की जनता के सम्मुख राजनैतिक दलों की विश्वसनीयता ही सवालो के घेरे में है। परन्तु इन सब उठापटक के बीच सरकार मौन होकर स्थिति को भांप रही है। सरकार आर्थिक सुधार के नाम पर देश-विदेश में अपनी छवि सुधारने की कवायद में लगी है क्योंकि स्वयं मनमोहन सिंह ने ही कह दिया था कि अगर जाना होगा तो लड़ते-लड़ते जायेंगे। किसी देश का प्रधानमंत्री "शहीदी वाला" ऐसा वक्तव्य किसी सामान्य स्थिति में नहीं दे सकता। विश्व प्रसिद्द अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह ऐसे स्वार्थी-फैसले अपनी छवि सुधारने के लिए ले रहे हैं अगर ऐसा माना लिया जाय कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। ध्यान देने योग्य है कि अभी हाल में ही उन्हें विदेशी मीडिया की आलोचनाओं का शिकार होना पड़ा था। कल तक मनमोहन सिंह को अक्षम, निर्णय न करने वाले, उपलब्धि-विहीन साबित करते विदेशी समाचार पत्र-पत्रिकाओं के सुर अचानक बदल गए। वॉल स्ट्रीट जरनल, वाशिंगटन टाइम्स, टाइम्स इत्यादि ने सरकार के इन कदमों का समर्थन करते हुए कहा है कि इससे सरकार की छवि बदलेगी।
सरकार अपने इन फैसलों को लेकर इसलिए निश्चिन्त है कि उसके पास सरकार चलाने के लिए पर्याप्त संख्या बल है और अगर कभी उस संख्या बल में कोई कमी आई तो उसके पास आर्थिक पैकेज और सीबीआई रूपी ऐसी कुंजी है जिसकी बदौलत वह किसी भी दल को समर्थन देने के लिए मजबूर कर सकती है। अगर इतने में भी बात न बनी और मध्यावधि चुनाव हो भी गए तो कांग्रेस द्वारा जनता को यह दिखाने के लिए हमने अर्थव्यस्था को पटरी पर लाने की कोशिश तो की थी पर इन राजनैतिक दलों ने आर्थिक सुधार नहीं होने दिया का ऐसा भंवरजाल बुना जायगा कि आम-जनता उसमे खुद फस जायेगी। इतना ही नहीं अभी आने वाले दिनों सरकार संभव है सरकार आने वाले दिनों में इंश्योरेंस क्षेत्र में विदेशी निवेश की सीमा बढ़ाने से लेकर पेंशन क्षेत्र में 26 प्रतिशत विदेशी निवेश, एकीकृत वस्तु एवं सेवा कर यानी जीएसटी पर संविधान संशोधन विधेयक, विदेशी शिक्षा संस्थानों की अनुमति आदि जैसे निर्णय लेगी जिससे कि राजनैतिक दलों को यह समझने का मौका ही नहीं मिलेगा कि सरकार के किस-किस फैसले का वह विरोध करे। ऐसा करना सरकार की मजबूरी भी है क्योंकि इस वर्तमान सरकार के पास जनता को केवल भ्रष्टाचार और आर्थिक संकट के आरोपों पर जवाब देने के अलावा और कुछ है नहीं।
महंगाई बेकाबू हो चुकी है और इसकी की मार से आम जनता त्राहि-त्राहि कर रही है। महंगाई से निपटने के लिए सरकार सिर्फ जनता को आश्वासन देने के लिए एक नयी तारीख देकर कुछ समय के लिए मामले को टाल देती है। सरकार के लिए महंगाई का मतलब कागजों पर जारी आंकड़ों से ज्यादा कुछ नहीं अगर ऐसा मान लिया जाय तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। आम आदमी जो छोटे-मोटे व्यापार से अभी तक अपना परिवार पाल रहा था उसको बेरोजगार करने का सरकार ने अपने इस फैसले से पुख्ता इंतजाम कर लिया है क्योंकि खुदरे व्यापार से सीधे आम जनता का सरोकार है। सरकार का तर्क है कि उसके इस कदम से करोड़ों लोगों को रोजगार मिलेगा जो कि सिर्फ बरगलाने वाला तर्क-मात्र से ज्यादा कुछ नहीं है क्योंकि उसके इस कदम से जितने लोगो को रोजगार मिलेगा उससे कई गुना ज्यादा लोगों की जैसे रेहडी-पटरी लगाने वाले, फ़ल-सब्जी बेचने वाले, छोटे दुकानदार, इत्यादि प्रकार के मध्यम और छोटे व्यापारियों की रोजी-रोटी छिन जायेगी। इन छोटे व्यापारियों का क्या होगा, इस सवाल पर सरकार मौन है, और न ही सरकार के पास इनका कोई विकल्प है।
भारत जैसा देश जहाँ की आबादी लगभग सवा सौ करोड़ हो, आर्थिक सुधार की अत्यंत आवश्यकता है परन्तु आर्थिक सुधार भारतीयों के हितों को ध्यान में रखकर करना होगा न कि विदेशियों के हितो को ध्यान में रखकर। अतः सरकार जल्दबाजी में बिना किसी से सलाह किये चाहे वो राजनैतिक पार्टियाँ हो अथवा आम जनता लगातार फैसले लेकर अपने को मजबूत इच्छाशक्ति वाली सरकार दिखाना चाहती है जो कि इस सरकार की हठ्धर्मिता का ही परिचायक है। बढ़ रहे वित्तीय घाटे और "पैसे तो पेड़ पर उगते नहीं है" की आड़ में सरकार किसके इशारे पर तथा किसको खुश करने के लिये और साथ ही क्या छुपाने के लिए आर्थिक सुधार के नाम पर इतनी जल्दबाजी में इतने विरोध के बावजूद इतने बड़े-बड़े फैसले ले रही है असली मुद्दा यह है। क्योंकि बात चाहे सरकार द्वारा आर्थिक सुधारों के नाम पर बढाई गयी महंगाई की हो या डीजल और घरेलू वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि की हो अथवा विपक्ष के भारत बंद की हो, राजनेता तो राजनीति करते ही है परन्तु परेशानी तो आम जनता को ही होती है ऐसे में भला आम जनता जाये तो कहा जाये।
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