अन्ना हजारे के गाँव रालेगांव के सरपंच जयसिंह मपारी शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस के टिकेट पर जिला परिषद का चुनाव लड़ें..
भारत एक लोकतान्त्रिक देश है। लोकतांत्रिक व्यवस्था अपनाने में हम बहुत ही सौभाग्यशाली रहे क्योंकि हमें लोकतंत्र अपनाने के लिए विश्व के अन्य देशों की तरह संघर्ष नहीं करना पड़ा। 1947 में प्राप्त स्वतंत्रता पश्चात हमारी संविधान सभा ने जिस संविधान को अंगीकार किया उसी संविधान द्वारा यहाँ के नागरिको को प्रदत्त मूल अधिकारों में से एक अधिकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार भी सम्मिलित है। देश की एकता और अखंडता को हानि पहुचाने वाले सभी तत्वों से सरकार को सख्ती से निपटना चाहिए क्योंकि यह राष्ट्र-हित की बात है। परन्तु देश की एकता और अखंडता बनाये रखने की आड़ में सरकार अपनी नाकामी छुपाने हेतु जिस तरह से सरकारी तंत्र का प्रयोग कर रही है उसकी नियत पर सवाल खड़े होना स्वाभाविक ही है।
भारत में करोड़ों की संख्या में घुसपैठ करने वाले बांग्लादेशियों तथा असम में हो रहे दंगे को रोकने में नाकाम रही सरकार अब अपनी कालिख सोशल मीडिया के मुँह पर पोत रही है। भारत इस समय किसी बड़ी संभावित साम्प्रदायिक-घटना रूपी ज्वालामुखी के मुहाने पर खड़ा हुआ प्रतीत हो रहा है। दिल्ली के सुभाष पार्क, नांगलोई, उत्तरप्रदेश के लखनऊ, इलाहाबाद, बरेली, कोसीकला, मुम्बई में आज़ाद मैदान, रांची, बंगलौर, हैदराबाद से सेकड़ों की संख्या में उत्तर-पूर्व के लोगों का पलायन जैसी घटनाएं किसी बड़ी संभावित घटना की तरफ इंगित कर रही है। इन घटनाओं को मीडिया ने दबाने की भरपूर कोशिश की परन्तु सोशल मीडिया के माध्यम से लोगों तक यह खबर आग की तरह पहुँचने लगी। इन घटनाओं पर सराकर के गैर जिम्मेदाराना रवैये ने लोगों में आक्रोश पैदा किया जिससे की लोगों में इन घटनाओं को लेकर तीव्र प्रतिक्रिया हुई और सरकार की किरकिरी होने लगी। लोगों ने खुलकर सरकार की लापरवाही के प्रति अपने स्वछन्द विचार प्रकट करने हेतु फेसबुक, ट्विटर, ब्लॉग, जैसी सोशल मीडिया का सहारा लिया। भारत में सोशल मीडिया के सहारे विचार प्रकट करने हेतु का कोई नया मामला नहीं है। सरकार को यह आशंका है कि असम के सीमावर्ती जिलों में हिंसा के बाद सांप्रदायिक तनाव बढ़ाने के लिए इन सोशल साइटों का उपयोग किया जा रहा है।
IBTL Columns
इससे पहले भी अन्ना-आन्दोलन और बाबा रामदेव के आन्दोलन को खड़ा करने में तथा अभिषेक मनु सिघवी का वीडियो यूं-ट्यूब पर लीक होने में सोशल मीडिया की बहुत बड़ी भूमिका थी। उस समय भी दूरसंचार मंत्री कपिल सिब्बल ने सोशल मीडिया का गला घोटने की बात कह कर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कुठाराघात करते हुए अपनी मंशा को उजागर कर दिया था। परन्तु जन-दबाव में उस समय ऐसा नहीं कर पाए। आज परिस्थिति बदल गयी है। देश की एकता और अखंडता बनाये रखने के नाम पर सोशल मीडिया को प्रतिबंधित करने पर लगता है कि शायद इस समय मंत्री जी अपने मंसूबे में कामयाब हो गए है। गौरतलब है कि इस समय भारत में ट्विटर के करीब एक करोड़ साठ लाख यूजर्स हैं। फेसबुक और गूगल का तो भारत में दफ्तर है, लेकिन ट्विटर का भारत में कोई दफ्तर नहीं है। सरकार ने इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर्स से 16 एकाउंट बंद करने का आदेश दिया है। जिनके एकाउंट बंद करने को कहा गया है उनमें संघ परिवार के मुखपत्र पांचजन्य, प्रवीण तोगडिया और दो पत्रकारों कंचन गुप्ता और शिव अरूर के ट्विटर एकाउंट भी शामिल हैं। कंचन गुप्ता दक्षिणपंथी विचार के पत्रकार के रूप में प्रसिद्द है तथा 1995 में राजग की वाजपेयी नेतृत्व वाली सरकार के दौरान पीएमओ में राह कर राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ब्रजेश मिश्र के साथ काम किया था।
सरकार को नींद से जगाने का काम जो विपक्ष नहीं कर सका वो काम सोशल मीडिया ने कर दिखाया। परिणामतः देश की संसद में भी आतंरिक सुरक्षा को लेकर तथा सरकार की विश्वसनीयता और उसकी कार्यप्रणाली पर प्रश्नचिंह खड़े किये गए। सांसदों की चीख-पुकार से सरकार की तब जाकर नीद खुली है। सरकार ने आनन-फानन में देश में मचे अब तक के तांडव को तो पहले पाकिस्तान की करतूत बताकर अपना पल्ला झड़ने की कोशिश करते हुए दोषियों के खिलाफ कार्यवाही करने के नाम पर भारत के गृहमंत्री ने पाकिस्तान के गृहमंत्री से रविवार को बात कर एक रस्म अदायगी मात्र कर दी और प्रति उत्तर में पाकिस्तान ने अपना पल्ला झाड़ते हुए भारत को आरोप-प्रत्यारोप का खेल खेलना बंद करने की नसीहत देते हुए यहाँ तक कह दिया कि भारत के लिए सही यह होगा कि वह अपने आंतरिक मुद्दों पर पर ध्यान दे और उन पर काबू पाने की कोशिश करे। अब सरकार लाख तर्क दे ले कि इन घटनाओं के पीछे पाकिस्तान का हाथ है, परन्तु सरकार द्वारा समय पर त्वरित कार्यवाही न करने के कारण जनता उनके इन तर्कों से संतुष्ट नहीं हो रही है इसलिए अब प्रश्न चिन्ह सरकार की नियत पर खड़ा हो गया है क्योंकि असम में 20 जुलाईं से शुरू हुईं सांप्रादायिक हिंसा जिसमे समय रहते तरुण गोगोईं सरकार ने कोई बचाव-कदम नहीं उठाए मात्र अपनी राजनैतिक नफ़ा-नुक्सान के हिसाब-किताब में ही लगी रही। परिणामतः वहां भयंकर नर-संहार हुआ और वहाँ के लाखों स्थानीय निवासियों ने अपना घर-बार छोड़कर राहत शिवरों में रहने के लिए मजबूर हो गए।
भारत सरकार का सोशल मीडिया पर लगाम कसने की इस अनुशंसा पर अमेरिका ने भी कड़ी आपत्ति जताई है। ध्यान देनें योग्य है कि अमेरिकी विदेश विभाग की प्रवक्ता विक्टोरिया नूलैंड ने कहा है, 'भारत अपने सुरक्षा हितों का ख्याल रखे, लेकिन ये भी ध्यान रखे कि इस सख्ती से विचारों की आजादी पर असर न पड़े। इतना ही नहीं सरकार के इस तालिबानी फैसले ने जून 1975 को तानाशाही शासन द्वारा घोषित आपातकाल के जख्मों को हरा कर दिया। ध्यान देने योग्य है कि सन 1975 में इलाहाबाद की अदालत द्वारा समाजवादी नेता राजनारायण की याचिका को स्वीकार कर तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के चुनाव को अवैध घोषित कर दिया गया। दूसरी तरफ लोकनायक जयप्रकाश नारायण के सम्पूर्ण क्रान्ति आंदोलन से देश में दूसरी आज़ादी के लिए सत्याग्रह का नारा बुलंद किया हुआ था। इन दोनों घटनाओं से श्रीमती इंदिरा गांधी को अपनी कुर्सी खतरे में नजर आने लगी परिणामतः उन्होंने देश पर ही आपातकाल थोप दिया। इतना ही नहीं अखबारों पर सेंसरशिप लागू कर उन्होंने संविधान प्रदत्त नागरिकों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी छीन ली। सरकार के इस रवैये से क्या यह मान लिया जाय कि क्या 1975 की तरह सरकार सेंसरशिप की ओर बढ़ रही है?
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