कश्मीर में हिन्दू हित दमन अनवरत जारी है | अब यूपीए की केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त जम्मू कश्मीर के राज्यपाल ने अमरनाथ यात..
15 अगस्त 1945 को जापान के आत्मसमर्पण के साथ द्वितीय विश्व युद्ध हिरोशिमा और नागासाकी के त्रासदी के रूप में कलंक लेकर समाप्त तो हुआ परन्तु जापान पिछले वर्ष आये भूकंप और सूनामी जैसी त्रासदी के बाद भी बिना अपने मूल्यों से समझौता किये राष्ट्रभक्ति, अपनी ईमानदारी और कठिन परिश्रम के आधार पर अखिल विश्व के मानस पटल पर लगभग हर क्षेत्र में गहरी छाप छोड़ता हुआ नित्य-प्रतिदिन आगे बढ़ता जा रहा है। ठीक दो वर्ष बाद 15 अगस्त 1947 को भारतवर्ष ने अपने को रणबांकुरों के बलिदानों की सहायता से एक खंडित-रूप में अंग्रेजों की बेड़ियों से स्वाधीन करने से लेकर अब तक भारत ने कई क्षेत्रो में को अपनी उपलब्धियों के चलते अपना लोहा मनवाने के लिए पूरे विश्व को विवश कर दिया।
भारत ने लंबी दूरी के बैलेस्टिक प्रक्षेपास्त्र अग्नि-5 का परीक्षण किया जिसकी मारक-क्षमता चीन के बीजिंग तक की दूरी तक है और अरिहंत नामक पनडुब्बी का विकास किया जो कि परमाणु ऊर्जा से चलती है तथा पानी के अन्दर असीमित समय तक रह सकती है और साथ ही सागरिका जैसी मिसाइलो को छोड़ने में भी सक्षम है को अपनी नौ सेना में शामिल कर अपनी सामरिक शक्ति में कई गुना वृद्धि किया तो वहीं रिसैट-1 उपग्रह का सफल प्रक्षेपण कर दिखाया जिससे बादल वाले मौसम में भी तस्वीर ली जा सकती है। भारत अपने भुवन" नामक तकनीकी के माध्यम से गूगल अर्थ तक को पीछे छोड़ दिया है। इस तकनीकी के माध्यम से दुनिया भर की सैटेलाईट तस्वीर बहुत बेहतर तरीके से जिसकी गुणवत्ता गूगल अर्थ की गुणवत्ता से कई गुना बेहतर है।
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परन्तु भारत की इन उपलब्धियों के बावजूद इसका एक दूसरा रूप भी है। भारत की लगभग 70 प्रतिशत जनता अभी भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से ग्रामीण भारत से सम्बन्ध रखती है। भारत में हुई हरित क्रांति के इतने साल बाद भी हम नई खेती के तरीको को मात्र 20-25 प्रतिशत खेतो तक ही ले जा पायें है। आज भी भारतीय-सकल घरेलू उत्पाद ( जीडीपी) में कृषि का लगभग 15 प्रतिशत का योगदान है। बावजूद इसके भारत की आधी से ज्यादा एनएसएसओ के ताजा आंकड़ो के आधार पर लगभग 60% जनसँख्या गरीबी में अपना जीवनयापन कर रही है। देश का कुल 40 प्रतिशत हिस्सा सिंचित/असिंचित है। इन क्षेत्रो के किसान पूर्णतः मानसून पर निर्भर है। आज भी किसान जोखिम उठाकर बीज, खाद, सिंचाई इत्यादि के लिए कर्ज लेने को मजबूर है ऐसे में अगर फसल की पैदावार संतोषजनक न हुई आत्महत्या करने को मजबूर हो जाता है।
भारत में किसानो की वर्तमान स्थिति बद से बदत्तर है। जिसे सुधारने के लिए सरकार को और प्रयास करना चाहिए। इसी के मद्देनजर किसानो की इस स्थिति से निपटने हेतु पंजाब के राज्यपाल शिवराज पाटिल की अध्यक्षता में गत वर्ष अक्टूबर में एक कमेटी बनायीं गयी थी जो शीघ्र ही सरकार को अपनी रिपोर्ट सौपेगी। इन सब उठापटक के बीच इसका एक दूसरा पहलू यह भी है कि सीमित संसाधन के बीच यह देश इतनी बड़ी आबादी को कैसे बुनियादी जरूरतों को उपलब्ध करवाए यह अपने आपमें एक बड़ा सवाल है जिसके लिए आये दिन मनरेगा जैसी विभिन्न सरकारी योजनाये बनकर घोटालो की भेट चढ़ जाती है और भारत-सरकार देश से गरीबी खत्म करने के खोखले दावे करती रहती है।
सिर्फ इतना ही नहीं भारत में स्वास्थ्य-सेवा तो भगवान भरोसे ही है अगर ऐसा माना जाय तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। एक तरफ जहा हमारी सरकार चिकित्सा-पर्यटन को बढ़ावा देने की बात करती है तो वही देश का दूसरा पक्ष कुछ और ही बयान करता है जिसका अंदाज़ा हम आये दिन देश के विभिन्न भागो से आये राजधानी दिल्ली के सरकारी अस्पतालों के आगे जमा भीड़ को देखकर लगा सकते है जहाँ एक छोटी बीमारी की इलाज के लिए ग्रामीण इलाके के लोगों को दिल्ली-स्थित एम्स आना पड़ता है। एक आकडे के मुताबिक आजादी के इतने वर्षों के बाद भी इलाज़ के अभाव में प्रसव-काल में 1000 मे 110 महिलाये दम तोड़ देती है। ध्यान देने योग्य है कि यूएनएफपीए के कार्यकारी निदेशक ने प्रसव स्वास्थ्य सेवा पर चिंतित होते हुए कहा है कि विश्व भर में प्रतिदिन लगभग 800 से अधिक महिलाये प्रसव के समय दम तोड़ देती है। भारत में आज भी एक हजार बच्चो में से 46 बच्चे काल के शिकार हो जाते है और 40 प्रतिशत से अधिक बच्चे कुपोषण के शिकार हो जाते है।
भारत को अब मैकाले – शिक्षा नीति को भारत-सापेक्ष बनाना नितांत आवश्यक है क्योंकि प्राचीन भारतीय शिक्षा दर्शन का परचम विश्व में कभी लहराया था। प्राचीन भारत का शिक्षा-दर्शन की शिक्षा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के लिए थी। इनका क्रमिक विकास ही शिक्षा का एकमात्र लक्ष्य था। मोक्ष जीवन का सर्वोपरि लक्ष्य था और यही शिक्षा का भी अन्तिम लक्ष्य था। प्राचीन काल में जीवन-दर्शन ने शिक्षा के उद्देश्यों को निर्धारित किया था। जीवन की आध्यात्मिक पृष्ठभूमि का प्रभाव शिक्षा दर्शन पर भी पड़ा था। उस काल के शिक्षकों, ऋषियों आदि ने चित्त-वृत्ति-निरोध को शिक्षा का उद्देश्य माना था। शिक्षा का लक्ष्य यह भी था कि आध्यात्मिक मूल्यों का विकास हो। किन्तु इसका यह भी अर्थ नहीं था कि लोकोपयोगी शिक्षा का आभाव था। प्रथमत: लोकोपयोगी शिक्षा परिवार में, परिवार के मध्यम से ही सम्पन्न हो जाती थीं। वंश की परंपरायें थीं और ये परम्परायें पिता से पुत्र को हस्तान्तरित होती रहती थीं।
प्राचीन युग की प्रधानता होने से राजनीति में हिंसा और शत्रुता, द्वेष और ईर्ष्या, परिग्रह और स्वार्थ का बहुल्य न होकर, प्रेम, सदाचार त्याग और अपरिग्रह महत्वपूर्ण थे। उदात्त भावनायें बलवती थीं। दिव्य सिद्धान्त जीवन के मार्गदर्शक थे। सामाजिक व्यवस्था में व्यक्ति प्रधान नहीं था, अपितु वह परिवार और समाज के लिए व्यक्तिगत स्वार्थ का त्याग करने को तत्पर था। उदात्त वृत्ति की सीमा सम्पूर्ण वसुधा थी। जीवन का आदर्श ‘वसुधैवकुटुम्बकम्’ था। भौतिकवादिता को छोड़ व्यवसायों के क्षेत्र में प्रतियोगिता नहीं के बराबर थीं। सभी के लिए काम उपलब्ध था। सभी की आवश्यकताएँ पूर्ण हो जाती थीं। भारत की राजनीति में भ्रष्टाचार और काले -धन जैसी सुरसा रूपी बीमारी को खत्म करके तथा तंत्र-व्यवस्था को भारतीय-सापेक्ष कर एकांगी-विकास की बजाय समुचित-विकास पर ध्यान देना चाहिए ताकि एक खुशहाल और समृद्ध भारत का सपना साकार हो सके और हर भारतीय स्वतंत्रता की सार्थकता को समझ सकें।
चित्र : संताबंता.कॉम
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