मिशन महंगाई और अर्थशास्त्र : गरीब तो क्या, मध्यम वर्ग के मुँह का निवाला तक छीन लिया

Published: Saturday, Jun 23,2012, 14:25 IST
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मिशन महंगाई और अर्थशास्त्र डा. विनोद बब्बर यूपीए सरकार ने अपनी एक और सालगिरह क्या मनाई, जनता की मुसीबत और बढ़ गई। सब्जियों, दालों, बिजली, पानी के बिल, दूध आदि के दाम आसमान को छू रहे थे कि पैट्रोल के दामों में भी अभूतपूर्व वृद्धि करते हुए साढ़े सात रूपये प्रति लीटर का बोझ डाला गया। अब इसके बाद डीजल, रसोई गैस और मिट्टी के तेल के दाम बढ़ाने के कयास लगाये जा रहे हैं। सारा देश हाहाकार कर रहा है इसकी पुष्टि 31 मई को आहूत सफल भारत बंद भी करता है। ऐसे में सरकार की आंख-कान कितने सक्रिय हैं इसकी पता जल्द ही लगना चाहिए कि वह दामों में वृद्धि वापस लेती है या अपने मिशन महंगाई पर कायम रहती है।

सरकार का कहना है कि 80 प्रतिशत कच्चा तेल विदेश से मंगाना पड़ता है और भुगतान डॉलर में करना पड़ता है। चूंकि एक डॉलर 56 रुपए का हो चुका है। इसलिए ज्यादा कीमत देनी पड़ रही है। इससे आयात महंगा पड़ रहा है। जबकि सच्चाई यह नहीं है। 15 मई 2011 को जब पेट्रोल 5 रुपए महंगा हुआ था, तब कच्चा तेल 114 डॉलर (एक डॉलर की कीमत थी 46 रुपए) प्रति बैरल था। इसका सीधा-सीधा अर्थ है कि तबं 5244 रुपए चुकाने पड़ते थे। आज क्रूड 91.47 डॉलर प्रति बैरल होने के कारण (डॉलर 56 रुपए) के बावजूद एक बैरल तेल 5066 रुपए में मिल रहा है। यानी कच्चा तेल 148 रु प्रति बैरल सस्ता मिल रहा है। इसलिए सरकार का दावा कहीं नहीं ठहरता।
अर्थव्यवस्था की मजबूती के लिए दूसरी ओर सरकार पर कालेधन की वापसी का दबाव है लेकिन जिस तरह पिछले संसद सत्र में श्वेतपत्र पेश करने की औपचारिकता निभायी गई उससे कौन विश्वास करेगा कि इरादा सचमुच भ्रष्टाचार से संघर्ष का है। महंगाई लगातार नये कीर्तिमान स्थापित कर रही है। बताया जा रहा है कि मुद्रास्फिति का पिछला रिकार्ड अर्थशास्त्री वित्तमंत्री मनमोहन सिंह के नाम था तो महंगाई और रूपये के मूल्य में जबरदस्त गिरावट का ताजा रिकार्ड भी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कार्यकाल को ही प्राप्त हो रहा है। आश्चर्य है कि जब हमारे छोटे-छोटे पड़ोसी देशों की मुद्रा तक अप्रभावित रही हो हमारी मुद्रा के ओंधे मुंह गिर रही है।

एक तरफ पैट्रोलियम पदार्थो के मूल्यों में जबरदस्त वृद्धि को सरकार अपनी बेबसी बताकर पल्ला झाड़ रही है तो दूसरी ओर तेलों पर लगनें वाले भारी भरकम करों में कटौती को तैयार नहीं है। सत्य तो यह है कि हर मूल्य वृद्धि के बाद राजस्व वृद्धि राज्यों की जेब को और अधिक भारी करती हैं। ऐसे में सबसीडी का रोना गरीब की पीड़ा को कम नहीं कर सकता। खाद्य पदार्थो के दामों में भारी वृद्धि ने गरीब तो क्या, मध्यम वर्ग के मुँह का निवाला छीन लिया है। अपने आपको व्यवस्थित मानने वाले एक व्यवसायी का कहना है कि घर का खर्च आराम से चला कर अपनी जिस आय से वे अपने बच्चों को अच्छे स्कूल में पढ़ाने के साथ वर्ष में एक-दो बार किसी पर्वतीय स्थान पर कुछ दिनो परिवार सहित बिताने बाद भी कुछ बचा लेते थे, अब उसी आमदनी से घर खर्च चलाना मुश्किल हो रहा हैं।

महंगाई के दुष्चक्र से क्या बड़े और क्या छोटे, सभी परेशान हैं। गर्मियों की छुट्टियॉ आधी बीत चुकी है परंतु टूर, टैवर्ल्स, होटल वाले मंदी की शिकायत कर रहे है। पिछले दिनों किये गए एक सर्वेक्षण के अनुसार आर्थिक मंदी और मंहगाई के कारण देश में कुपोषण बढ़ रहा है। पिछड़े क्षेत्रो की महिलाओं तथा बच्चों पर महंगाई का सर्वाधिक प्रभाव पड़ रहा है। यदि जल्द ही इस ओर ध्यान न दिया गया तो यहॉ भी स्थिति अफ्रीकी देशो जैसी हो सकती है। सरकारी प्रवक्ता इस सर्वेक्षण के बिल्कुल उल्ट 'सब हरा हरा है' जैसी गुलाबी तस्वीर प्रस्तुत कर रहे हैं।

पिछले बुछ वर्षों से सरकार जिस बढ़ती विकास दर पर फूली नहीं समाती थी इस बार तो वह भी धोखा दे रही है अर्थात् विकास दर में गिरावट की बात स्वयं वित्त मंत्री भी करते हैं। यह अर्थशास्त्र का छोटा सा विद्यार्थी भी जानता है कि जब भ्रष्टाचार और महंगाई विकास दर के प्रभाव को न केवल समाप्त कर देती है बल्कि नीचे की ओर ले आती है, इस तथ्य को यू.पी.ए. सरकार के नीति निर्माता समझने को तैयार नहीं है। एक किसान ने साधारण से उदाहरण से यह बात समझाते हुए बताया कि उसके बेटे का वेतन 10 प्रतिशत बढ़ गया पर महंगाई उससे भी अधिक तेजी से बढ़ने के कारण अब वह गांव में मनीआर्डर नहीं भेज पाता क्योंकि बढे हुए वेतन पर खर्चे भारी पढ़ने लगे।

एक अन्य किसान ने कृषि और गांव की अनदेखी के कारण अनाज उत्पादन को झटका लगने की बात कहीं क्योंकि छोटे किसान को खाद, बीज, सिंचाई के लिए किसी प्रकार की मदद नहीं मिलती, किसानो के कर्ज माफी की असलियत भी खुद सरकार के रिजर्व बैंक ने खुद बयान कर दी है। कर्ज माफी दिखावा साबित हुई है। यू.पी.ए. के सांझा कार्यक्रम में गांवो के विकास के लिए जिन उपायों की चर्चा की गई थी, वे पूरे नहीं हुआ। सरकार बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और परमाणु करार के लिए तो बेकरार है पर गरीब किसानों की आत्महत्याओं को हल्कें से ले रही है। देश में कृषि भूमि लगातार कम हो रही है क्योंकि कहीं हजारो एकड़ जमीन पर 'सेज' स्थापित किए जा रहे है तो कहीं आवासीय कालोनियां। रासायानिक खादो के प्रयोग के कारण भूमि बेकार हो रही है तो कही सूखे और बाढ़ ने फसल को चौपट कर रही है। ऐसे में कृषि उत्पादन को बढाने के लिए क्या किया जा रहा है, इस पर सरकारें मौन हैं।

यदि उत्पादन गिरेगा तो महंगाई और अधिक विकराल रूप धारण कर सकती है, तब पहले से ही त्रस्त आम आदमी का क्या होगा? इस वर्ष गेहू की अच्छी फसल हुई है लेकिन अनाज के भंडारण की उचित व्यवस्था न होने के कारण आज तक अनाज खुले में पड़ा है जो आंध, तूफान, बरसात से नष्ट होना तय है। क्या यह सरकार की जिम्मेवारी नहीं कि किसान को उसके खून-पसीने को उचित मूल्य दिलाने की व्यवस्था करे तो दूसरी और आम आदमी को आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति उचित मूल्य पर सुनिश्चित करे। सत्ता के दलालों की धांधली पर चुप्पी तोड़ते हुए मनमानी पर नियंत्रण, मूल्य नियंत्रण प्रणाली जैसे कदमों से महंगाई के पर कतरे जा सकते है, परंतु जिस सरकार ने सार्वजनिक वितरण प्रणाली अर्थात सरकारी राशन की दुकानों को ए.पी.एल और बी.पी.एल की रेखाएं खिंचकर लगभग पंगु बना दिया हो, उनसें ज्यादा उम्मीद नहीं की जा सकती हैं। योजना आयोग बेशक 23 रुपये कमाने वाले को गरीबी रेखा के ऊपर बताये लेकिन उन्हें सोचना चाहिए कि क्या गरीबी रेखा का संबंध केवल आय से है या महंगाई से भी उसका कुछ लेना देना है?

आज कुछ कर दिखाने की बेला है क्योकि 'कुछ कर दिखाने' की जिम्मेवारी जल्द ही (चुनावों में?) महंगाई से परेशान जनता के पास भी आने ही वाली है। महंगाई को किसी संकीर्ण दृष्टिकोण से देखने की बजाय 'बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय' काबू में करना प्रथम कर्तव्य है। इसके लिए हर संभव कारगर कदम उठाना चाहिए क्योकि भूख और बेबसी का अर्थशास्त्र अलग होता है, जिसका एक रास्ता अराजकता की ओर भी जाता है।

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