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चिट-फण्ड घोटाले मामले में आज कल चारो तरफ हडकंप मचा है। करीबन 5000 हज़ार करोड़ रूपये या शायद उससे भी ज्यादा के इस गोलमाल ने पश्चिम बंगाल के हज़ारों गरीबों की जिंदगियों को पटरी से ही उतार डाला है। इस मायने में ये घोटाला महज़ एक आर्थिक अपराध न होकर एक जघन्यतम कृत्य है जिसमे उनसे उनके मुंह का निवाला छिना गया है जो पहले से दो जून की रोटी नहीं जुटा पा रहे थे। मीडिया ने शुरुआत में तो इस मामले को बड़ी सम्यकता के साथ उठाया और शायद ये मीडिया के शोर का ही परिणाम था की तक़रीबन महीने भर से फरार चल रहे इस पुरे घोटाले के कर्ता-धर्ता सुदिप्तो सेन मीडिया में मामले के आने के पांच दिनों के भीतर ही पकडे भी गये। लेकिन इस पूरे मामले की रिपोर्टिंग ने यह भी साबित कर दिया है मीडिया उसे तो गले से पकड़ लेती है जिसकी ताकत या पहुँच नहीं होती लेकिन यदि बात पहुँच वाले या प्रभुत्व और प्रभावशाली लोगों की हो तो मीडिया कैसे अपना रास्ता बदल लेती है। यह चिट-फण्ड घोटाला इस बात का उदहारण तो है ही की इंसान इस हद तक नीचे गिर गया है की अपने फायदे के लिए भिखारी को भी लूट सकता है साथ ही इसका भी उदाहरण है की मीडिया का रवैया अलग-अलग स्तर के (सामाजिक और राजनितिक प्रभुत्व के सन्दर्भ में) संदिग्धों के लिए किस कदर अलग अलग हो सकता है। एक ही मामले में लगभग एक ही तरह की भूमिका के लिए अलग-अलग लोगों से मीडिया किस प्रकार अलग अलग तरीको से सौदा करता है- यह मामला इस सन्दर्भ में एक अच्छा केस-स्टडी हो सकता है।
दरअसल चौतरफा दबाव बढ़ने पर और किसी भी समय अपना खेल पूरी तरह समाप्त होने की संभावनाओं के मध्य शारदा ग्रुप के मालिक सुदिप्तो सेन ने 6 अप्रैल, 2013 को सीबीआई को एक चिट्ठी लिखी थी जिसमे उन्होंने पूरे विस्तार से यह बताया है की किस तरह कुछ मीडिया के लोगों और राजनेताओं ने उसे हर मुसीबत में बचाया और इसकी तगड़ी कीमत वसूली। जिन तीन बड़े नामों का मुख्यतः इस पत्र में उल्लेख है उनमे दो तृण-मूल कांग्रेस के सांसद हैं और तीसरा नाम वित्त मंत्री पी चिदंबरम की पत्नी नलिनी चिदंबरम है। चूँकि तृण-मूल कांग्रेस का प्रभुत्व क्षेत्रीय है और अभी वो दिल्ली के सत्ता-समीकरणों से बाहर है तो भारतीय इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने दवाब बनाते हुए बढ़ चढ़ कर दिखाया परन्तु... इस पुरे मामले में नलिनी चिदंबरम के नाम का उल्लेख तक नहीं किया। जबकि चिट्ठी में इस बात का साफ़ उल्लेख किया गया है की नलिनी चिदंबरम ने पूर्वोत्तर-भारत में एक क्षेत्रीय चैनल खोलने के लिए सुदिप्तो सेन पर 42 करोड़ देने का दबाव बनाया था।
यह उस समय की बात है जब सुदिप्तो सेन वित्त मंत्रालय और सेबी के रडार पर थे। किसी भी इलेक्ट्रॉनिक चैनल ने इस बात का तनिक भी उल्लेख नहीं किया। जबकि इसी तरह के आरोपों के लिए दिन भर यह चैनल तृण-मूल कांग्रेस के उन दो सांसदों की मिटटी पलीद करते रहे। ऐसा कहने का मकसद तृण-मूल कांग्रेस को किसी तरह का समर्थन नहीं है बल्कि जो भी इस काम में रत्ती भर भी शामिल रहे हैं उन्हें सार्वजनिक मंचो पर इसी तरह जलील किया जाना चाहिए। दरअसल इस मामले के "मेरिट" पर यदि बात की जाये तो चिट-फण्ड केन्द्रीय वित्त मंत्रालय के अधिकार-क्षेत्र में आता हैं और राज्यों या स्थानीय प्रशासन की भूमिका तभी आती है जब किसी गड़बड़ी की शिकायत की जाये इस लिहाज़ से किसी पूर्व वित्त मंत्री और अगले वित्त मंत्री होने के प्रबल दावेदार की पत्नी का आरोपी से पैसे की मांग करना निश्चित रूप से अधिक बड़ी खबर है वनस्पत स्थानीय प्रशासन के मिलीभगत से यही पत्रकारिता का तकाजा भी है।
लेकिन किसी भी चैनल ने इस तथ्य को प्राथमिकता नहीं दी। प्रिंट मीडिया ने भी ऐसी ही कारस्तानी दिखाई। सबसे पहले तो नलिनी चिदंबरम "हेड-लाइन" से गायब रहीं और बीच में कही हल्का-फुल्का उल्लेख कर दिया गया। कुछ ने तो एक कदम आगे बढ़- "यूपीए सरकार के एक ताकतवर मंत्री की पत्नी" जैसे जुमले का प्रयोग किया, जबकि तृण-मूल कांग्रेस के दोनों सांसदों के बाकायदा नाम दिए गए। यदि नलिनी चिदंबरम के नाम का उल्लेख न करने का कारण यह था की ये धोखेबाजी के एक आरोपी का आरोप है जो विश्वसनीय नहीं माना जा सकता तो यह तर्क फिर तृण-मूल कांग्रेस के उन दो सांसदों पर भी लागू होता है। मीडिया का यह दोगलापन खुद उसके लिए ही घातक है। यदि मीडिया ताकतवरो पर हाथ डालने की हिम्मत न करने की ऐसी कमजोरी की नुमाईश ऐसे ही करेगा तो देश को बेचने वालो के हौसले क्यूँ नहीं बुलंद होंगे और क्यूँ नहीं हम हर दिन एक नया घोटाला सुनेंगे !!
अभिनव शंकर । ट्विटर पर जुडें twitter.com/abhinavshankar1
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