विदेश नीति को वफादारी का औज़ार न बनाइये...

Published: Tuesday, Mar 12,2013, 08:11 IST
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एक देश की विदेश नीति का आधार क्या होना चाहिए, यह सदा से ही बुद्धिजीवी समाज में एक चर्चा का विषय रहा है। संसार के किसी भी राष्ट्र के विदेश नीति के मानदंड सामान्यतया सत्ता परिवर्तन से निर्लिप्त रखे जाते हैं क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्ध मूलतः सत्ताधारी दल की विचारधारा के बजाय एक सर्वमान्य नीति के आधार पर ही बनाये और चलाये जाते हैं। युधिष्ठिर द्वारा महाभारत में कहा गया एक वाक्य ‘वयं पंचाधिक शतं’ सदा से ही भारत कि विदेश नीति का आधार रहा है। बीसवी सदी के अंतिम दशक में तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव द्वारा श्री अटल बिहारी वाजपेयी को भारतीय प्रतिनिधि मंडल के नेता के रूप में जिनेवा में आयोजित संयुक्त राष्ट्र संघ बैठक में भेजना इसी परंपरा का एक श्रेष्ठ उदाहरण था।

मुख्यतः संसार में विदेश नीति के दो आधार माने जाते हैं। भारत में भी विदेश नीति दो स्तंभों के बीच में झूलती रही है। विदेश नीति का एक सिद्धांत कहता है कि आपकी विचारधारा के अनुकूल शासन तंत्र जिन देशो में विद्यमान है अथवा जिन देशों का समर्थन या विरोध करने से आपके दल को वोट पाने में सहायता मिले, उस देश के सन्दर्भ में वैसी विदेश नीति अपनानी चाहिए। पंडित नेहरु से ले कर राजीव गाँधी और चंद्रशेखर तक भारत के सत्ताधारी दलों ने विदेश नीति को भी अपनी विचारधारा अथवा वोट बैंक की राजनीति का एक उपकरण बना लिया। साम्यवाद के प्रति अपने झुकाव के कारण ही एक तरफ पंडित नेहरु ने तिब्बत पर चीनी हमले के समय चुप्पी साधे रखी और दूसरी तरफ राष्ट्र के अर्थ-तंत्र को पूरी तरह सोविअत रूस के हवाले कर दिया| १९९६ तक भारत ने इजराइल जैसे एक मित्र राष्ट्र से इसलिए राजनैतिक सम्बन्ध नहीं बनवाए क्योंकि सत्ताधारी दलों को अपने वोट बैंक खोने का दर सताता रहता था। पाकिस्तान के लगातार हमलों, सीमाओं पर गोलीबारी, देश में बढती आतंकवादी घटनाओं पर हमारी रहस्यमयी चुप्पी विस्मित कर देने वाली है। कारण एक ही कि सत्ता तंत्र को अपने वोट में कमी का डर सताता रहता है।

इस के उलट विदेश नीति का दूसरा सिद्धांत कहता है कि विदेश नीति राष्ट्र हितकारी होनी चाहिए। १९९८ में इन भारत ने जब परमाणु परिक्षण किये तो पूरे विश्व ने हम पर प्रतिबन्ध लगा दिए। अनेक दलों द्वारा यह कहा गया कि आत्महत्या के बराबर का कदम था तथा अब भारत को इन प्रतिबंधों की छाया से उबरने में शताब्दियाँ लग जाएंगी। परन्तु कुछ ही समय में सारा परिदृश्य बदल गया और सम्पूर्ण संसार ने भारत की शक्ति को स्वीकार किया। यह एक श्रेष्ठ नेतृत्व की निशानी है है कि जब देश का विषय आये तो वह राजनीतिक स्वार्थ से ऊपर उठ कर सोचे

इटली के नाविकों द्वारा पिछले वर्ष १५ फरवरी को केरल के निकट अरब सागर की भारतीय सीमा में पर भारतीय मछुआरों की हत्या तथा उस पर भारत सरकार का रवैया प्रारंभ से ही अत्यंत निराशाजनक रहा हैं। यह कोई सामान्य घटना नहीं थी अपितु भारत की संप्रभुता पर दो विदेशी नागरिकों द्वारा खुलेआम किया गया आक्रमण था, परन्तु दुःख का विषय है कि वर्तमान केंद्र तथा राज्य सरकार द्वारा प्रारंभ से ही इस पर अत्यंत ही लापरवाही भरा रवैया अपनाया गया। इटली की सरकार द्वारा जिस प्रकार प्रथम दिवस से ही अपने नागरिकों की सुरक्षा के प्रयास किये गए, यदि उनकी तुलना उन गरीब मछुआरों के परिवारों को न्याय दिलाने हेतु भारत सरकार द्वारा की गयी कार्यवाही से किया जाए तो निश्चित ही क्षोभ उत्पन्न होता है।

इटली कभी भारत का सहयोगी देश नहीं रहा। अगर पिछले दो दशकों का इतिहास उठा कर भी देखें तो इटली ही वह देश था जिसने पाकिस्तान तथा अन्य दो देशों के साथ मिलकर १९९५ में उस ‘कॉफ़ी क्लब’ की स्थापना की जो उस दिन से ले कर आज तक संयुक्त राष्ट्र के हर मंच पर भारत का विरोध करता आ रहा है। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का ज्ञान रखने वाले जानते हैं कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्य के रूप में भारत की दावेदारी की राह में यदि कोई सबसे बड़ा रोड़ा बनकर हर बार उभरता है तो वह, अब ५० से अधिक सदस्यों वाला यह कॉफ़ी क्लब ही है। इस के अतिरिक्त भी भारत सम्बंधित अधिकतम विषयों पर यह काफी क्लब अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भारत विरोधी भूमिका निभाता रहा है। वर्तमान में भी चर्चित हेलीकाप्टर खरीद घोटाले में इटली सरकार ने जिस प्रकार का असहयोगपूर्ण रवैया अपनाया हुआ है, वह किसी भी रूप में एक मित्र राष्ट्र कि अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं है।

इस सब के बावजूद उन दोनों नाविकों को जिस प्रकार से यहाँ पर शाही सत्कार दिया जा रहा था, वह आश्चर्यजनक है। यह सब जानते हैं कि उनको जेल में भी केवल इसलिए डाला गया था क्योंकि केरल के नागरिकों ने सब मतभेदों से ऊपर उठकर तीव्र विरोध द्वारा राज्य सरकार को विवश कर दिया था अन्यथा शायद वो हत्यारे उसी दिन वापिस लौट गए होते। इस के बाद भी, संसार भर के अपराधिक न्याय के इतिहास में शायद पहला अवसर था जब दिसम्बर में सर्वोच्च न्यायालय ने मुक़दमे के बीच में ही किसी अपराधी को सजा के बीच में घर जा कर त्यौहार मनाने कि अनुमति प्रदान की और सरकार ने भी कोई आपति प्रकट नहीं की ! यही नहीं जेल में भी उन दोनों हत्यारों की वीआइपी आवभगत की जा रही थी| यह सब घटनाएं यह बताने के लिए पर्याप्त है कि यह सरकार किस प्रकार कुछ निहित तत्वों को प्रसन्न करने के लिए इटली के नाविकों को अनपेक्षित संरक्षण देती रही है। अभी जब दोबारा उन नाविकों को वोट डालने के लिए उनके देश भेजा गया तो अब इटली सरकारने यह कह कर कि भारत के न्यायालय को उन पर मुकदमा चलने का कोई अधिकार नहीं है, उन नाविकों को वापिस भारत भेजने से इनकार कर दिया है। यह अंतर्राष्ट्रीय मर्यादा का सरासर उल्लंघन है जिस पर सरकारी चुप्पी शर्मनाक है। क्या कारण है कि इटली से सम्बंधित मामलो में यह सरकार एकदम निश्चेष्ट भाव में आ जाती है, चाहे वो बोफोर्स हो, हेलीकाप्टर दलाली हो या निर्दोष मछुआरों की हत्या? क्या इसका सम्बन्ध यूपीए अध्यक्ष के मातृभूमि प्रेम से है, यह एक ऐसा सवाल है जो इस देश के मानस को आज कचोट रहा है।

बोफोर्स काण्ड में दलाली खाने वाले मुख्य षड्यंत्रकारी क्वात्रोची के खातों को जिस प्रकार से यूपीए ने खुलवाया था ताकि वो सारा पैसा निकाल सके, जिस प्रकार हेलीकाप्टर दलाली के मामले में २०० करोड़ खाने वाले परिवार का सन्दर्भ आया है, और अब जिस प्रकार नितांत लापरवाही के कारण भारत के मुंह पर यह इटैलियन तमाचा पड़ा है, इन सब से यह स्पष्ट हो चला है कि किसी के भीतर मातृभूमि प्रेम के उमड़ने के कारण ही भारत को लगातार कूटनीतिक मार खानी पड़ रही है। वे दो मछुआरे माँ भारती के पुत्र थे, जिनको उन हत्यारों ने बिना किसी कारण गोलियों से छलनी कर दिया| उन के हत्यारों के साथ इस प्रकार का व्यवहार सारे संसार में हमारी कूटनीतिक नाकामी का आइना बन कर हमें आने वाले भविष्य में सदा चिडाता रहेगा।

भारत सरकार को इस घटनाक्रम से अभी भी सबक ले कर सख्ती से पेश आना चाहिए ताकि संसार में यह सन्देश जाए कि हमें अपने नागरिकों की जान की परवाह है। देश के सवा सौ करोड़ भारतीयों का राष्ट्रप्रेम एक महिला के राष्ट्रप्रेम के आगे अब और बलियाँ सहने को तैयार नहीं है। यह घटना भी अगर हमारे शासकों के स्वाभिमान को न जगा सकी तो शायद आगे अवसर न मिल पाए।

राहुल कौशिक, लेखक से जुडें twitter.com/kaushkrahul

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