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सेकुलरिस्म किसका? नरेन्द्र मोदी का या मनमोहन-मुलायम का?
बात फिर वही आ कर खड़ी हो गयी है। नरेन्द्र मोदी ने बार बार कहा है कि सेकुलरिस्म के मायने पर राष्ट्रीय बहस की आवश्यकता है। कल प्रवासी भारतीयों को दिए अपने उद्बोधन में उन्होंने अपने सेकुलरिस्ज्म की वह परिभाषा दोहराई भी जिसके अनुसार सेकुलरिज्म का अर्थ है - इंडिया फर्स्ट अर्थात भारत ही सर्वोपरि है।
आश्चर्य नहीं कि मोदी के ये कहते ही कांग्रेस ने कहा कि भारत के सर्वोपरि होने की बात करना सेकुलरिस्म नहीं है।
बात भी सही है। आखिर कांग्रेसी सेकुलरिस्म की परिभाषा तो भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह 6 साल पहले राष्ट्रीय विकास परिषद् की मीटिंग में घोषित रूप से दे चुके थे जब उन्होंने कहा कि भारत के संसाधनों पर पहला अधिकार मुस्लिमों का है।
भले ये बात अल्लाह के फरमान जैसा लगे न कि किसी तथाकथित सेक्युलर देश के प्रधानमंत्री का, लेकिन जब जनता के चुने दल का प्रधानमंत्री (और इस बयान के बाद जनता ने उसे दोबारा प्रधानमंत्री चुना) ऐसा कहे तो अर्थ तो यही है, कि भारत की जनता को यही सेकुलरिज्म चाहिए जिसमें देश के संसाधनों पर पहला अधिकार मुस्लिमों का हो।
आश्चर्य नहीं कि धर्म के आधार पर हुए बंटवारे में हिन्दुओं के लिए बचा-खुचा हिन्दुस्तान छोड़ने के 60 साल बाद सरकारी नौकरियों में और शिक्षा में मुसलमानों के लिए आरक्षण की बाद 80 प्रतिशत हिन्दू जनसँख्या वाले देश में चुनावी मुद्दा बनाने को तैयार है। करदाताओं के खर्चे पर पलने वाली सच्चर समिति ने इसकी संस्तुति भी की। और इसी सेकुलरिस्म का अब विधिवत रूप से पालन पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश जैसे राज्य कर रहे हैं। हिजाब पहन कर ईद की नमाज़ पढने वाली ममता बनर्जी के पश्चिम बंगाल में करदाताओं के पैसे से सरकार इमामों को तनख्वाह देती है तो उत्तर प्रदेश में तो सरकार ने घोषित ही कर दिया है की प्रदेश की बेटी मतलब केवल मुस्लिम बेटी। "हमारी बेटी हमारा कल" योजना केवल मुस्लिम बेटियों के लिए है। इस बजट में सरकार ने इस योजना के लिए 350 करोड़ का आवंटन किया है। मुस्लिम लड़कियों को 10वीं पास करते ही 30000 रुपये की खैरात सरकार बांटेगी और हिन्दू लड़कियों को कुछ नहीं मिलेगा। मुस्लिम छात्रों की फीस भी सकरार भरेगी - इसके लिए 700 करोड़ का ऐलान बजट में है। मरहूम हो चुके मुस्लिमों के लिए भी बजट में सहूलियत है। भले उत्तर प्रदेश के 40% बच्चे कुपोषण के शिकार हो और सरकार को उन्हें पेट भर खाना खिलाने के लिए पैसा न हो, लेकिन कब्रिस्तानों की मरम्मत के लिए 300 करोड़ रुपये दिए गए हैं। जिन इलाकों में मुस्लिम अधिक संख्या में हैं, सिर्फ उन इलाकों के विकास के लिए 492 करोड़ का विशेष फंड बनाया गया है। और अरबी भाषा के प्रचार प्रसार एवं मदरसों के लिए कुल 385 करोड़ की व्यवस्था की गयी है।
यही तो होता है "सेकुलरिज्म", और फिर जनता को भी तो ऐसा ही सेकुलरिस्म पसंद है तभी तो मनमोहन सिंह के 2006 के बयान के बाद 2009 में उन्हें और अधिक सीटों के साथ प्रधानमंत्री बनाया। और "सांप्रदायिक ताकतों को सत्ता में आने से रोकने के लिए" कुछ भी कर गुजर जाने वाले मुलायम-पुत्र-अखिलेश को भी तो प्रचंड बहुमत से इसी जनता ने चुना। अखिलेश तो बस अब वही अपना सेक्युलर कर्त्तव्य निभा रहे हैं। तभी तो कुछ दिन पहले मारे गए पुलिस अधिकारी मरहूम जिया उल हक की बेवा परवीन की मांगें पूरा करने के लिए सरकार बिछी हुई है - वही लोग जिनके पास शहीद हेमराज के अंतिम संस्कार में जाने तक का समय नहीं था और जिन्होंने उसकी विधवा को अनशन पर बैठने को विवश किया था। आतंकवादी गतिविधियों के कारण पकडे गए मुस्लिम युवकों को छोड़ देने का वादा कर मुख्यमंत्री बने अखिलेश के कार्यकाल का पहला साल 6-7 छोटे-छोटे दंगे देख चुका है। बरेली में महीने भर से अधिक कर्फ्यू रहा था। पर सेकुलरिज्म की थोड़ी बहुत कीमत तो चुकानी पड़ती है न।
बेकार ही नरेन्द्र मोदी "इंडिया फर्स्ट" की रट लगा कर विकास विकास चिल्ला रहे हैं। अरे भाई - सेकुलर बनना हो तो मनमोहन सिंह या मुलायम सिंह की तरह बोलना, करना सीखिए, और वो न हो तो, भारत रत्न राजीव गाँधी को याद कर लीजिये - जिनका मेनका गाँधी के विरुद्ध चुनावी नारा था - "बेटी है सरदार की, क़ौम है गद्दार की"। देश को हिन्दू-मुस्लिम में बांटना, सिखों को गद्दार बोलना, हिन्दुओं को आतंकवादी बोलना और मुस्लिमों का चरण-चुम्बन करना जब तक आप नहीं करेंगें, जब तक आप "मेरे 6 करोड़ गुजराती" और "मेरा भारत सर्वोपरि" कहते रहेंगें, तब तक आप सेकुलर बन ही नहीं सकते। और 2009 के लोकसभा चुनाव और 2012 के उत्तर प्रदेश चुनाव तो चीख चीख कर कह रहे हैं कि जनता को सेकुलरिस्म कितना पसंद है।
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