जन-आन्दोलन की बदलती परिभाषा ...

Published: Friday, Nov 09,2012, 01:00 IST
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हाल के कुछ दिनों में समाज में परिर्वतन की नई लहर चल रही है। चारों दिशाओं से बदलाव की बात की जा रही है, ऊपरी तौर पर देखें तो यह स्वस्थ लोकतंत्र की सबसे प्रमुख विशेषता है। लेकिन जिस प्रकार से सिक्के दो पहलू होते है उसी प्रकार से दो पक्ष होते हैं एक सकारात्मक व दूजा नकारात्मक और इन दोनों पक्षो का निष्पक्ष रुप से अध्यन करना भी लोकतंत्र की प्रमुख विशेषता है।

जिस तरह से समाज में भ्रष्ट्राचार व्यापत हैं और उस पर राजनेताओं का जो उदासीन व्यवहार है यह तो देश व लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए खतरनाक है ही लेकिन इसे लेकर जिस तरह आन्दोलन चल रहे है उसने समाज में एक भ्रम कि स्थिती पैदा कर दी है, यह भ्रम जाल हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था व देश के लिए शुभ सकेत नहीं। लोकतांत्रिक व्यवस्था को सुचारु रुप से चलाने में जन-आन्दोलनों की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है, इतिहास गवाह रहा जनता की आंधी के सामने बड़े से बड़ा बरगद नहीं टिक पाया है लेकिन किसी भी जन आन्दोलन की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि उसकी दिशा, दशा एवं लक्ष्य सटीक हो।

भारत में आजादी के पश्हत 77 का जे.पी आन्दोलन पहला ऐसा जन-आन्दोलन था जो अपने लक्ष्य को पाने में सफल हो पाया इससे पहले किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि इस देश में कभी गैर-कांग्रेसी सरकार बन पायेगी। जे.पी के इस आन्दोलन के सफलता का मूल मंत्र उसकी सुदृढ़ता, लक्ष्य व दिशा की स्पष्टता व सभी जन-मानस को साथ लेकर चलना रहा था। जन-आन्दोलन, चाहे व सत्ता परिवर्तन के लिए हो या किसी सामाजिक सरोकार के लिए, राजनैतिक हो, देश व्यापी हो, या किसी क्षेत्र से जुडी समस्याओं के लिए हो... आन्दोलन की सफलता इस बात निर्भर करती है कि उसमें आम जन-मानस व समाज के तमाम वर्गो की भागीदारी किस प्रकार से रही है।

वर्तमान समय में जन-आन्दोलन की परिभाषा, दिशा व दशा दोनों बदल गई है। समय के साथ परिवर्तन होना आवश्यक है लेकिन जब आन्दोलन का आधार ही परिवर्तित हो जाये तो देश व आन्दोलन दोनों के लिए ही हानिकारक है। वर्तमान समय में कुछ ऐसा ही हो रहा है, जन-आन्दोलन की दिशा, दशा व लक्ष्य तीनों भ्रमित है जिसका अंत परिणाम यह होता है कि ये आन्दोलन देश को दिशा देने की बजाय उन्हें भ्रमित कर देते है।
 
आज के समय आन्दोलन आरोपों से शुरु होता है और आरोप पर ही समाप्त हो जाता है, अंत में आम जनता जिसके लिए आन्दोलन किया जाता है वह देखती रह जाती है। रामलीला मैदाम में, इंडिया अगेंस्ट करप्शन व अन्ना का आन्दोलन जब शरु हुआ था तो लगा कि देश में एक नई क्रांति आने जा रही है, लोगों ने पूरे विश्वास के साथ अन्ना का साथ भी दिया, जब अन्ना रामलीला मैदान में थे मानो पूरा देश रामलीला मैदान में सम्मलित होने को आतुर था लगा बदलाव अब होकर रहेगा लेकिन अंत इसका परिणाम क्या हुआ शून्य, जहां से चले थे वहीं पहुंच गये, कहने को बाबा राम देव व अन्ना हजारे या उनकी टीम जो अब अलग हो चुकी है (अरविन्द केजरीवाल) इन सभी का उद्देश्य एक परन्तु इनकी 'अकेले चलो' की नीति में आम जनता और इस जन-आन्दोलन की हार हुई क्योंकि जन-आन्दोलन में सभी की भागीदारी का होना अत्यंत आवश्यक है। वर्तमान समय में आन्दोलन का नया स्वरुप निकल कर सामने आया, 'आरोप का दौर' आप किसी पर आरोप लगाये कुछ दिन उस हल्ला मचाये फिर आगे निकल जाये, इस तरह कि आतिशबाजी देखने में तो अत्यनत सुन्दर लगती है लेकिन इससे अपना ही घर जलने का खतरा बना रहता है। यहां मिडिया विशेष तौर पर इलेक्ट्रनिक मिडिया को अपनी भूमिका बड़ी संभल कर निभाने की आवश्यकता है क्योंकि इसका सीधा प्रभाव आम जनमानस पर पड़ता है।

आज आन्दोलन, आन्दोलन कम होकर इवेंट अधिक हो गायें हैं, जिस प्रकार किसी इवेंट को सफल बानने के लिए प्रचार-प्रसार, दिन आदि का ध्यान रखा जाता कुछ उसी प्रकार आन्दोलनों का संचालन किया जा रहा है यहाँ जो बात गौर करने योग्य है वह यह है कि इन तमाम तरीकों से इवेंट रुपी आन्दोलन तो हिट हो रहा है लेकिन देश को फायदे की बजाय नुकसान हो रहा है। दूसरा आज के आन्दोलनों में स्थिरता की भारी कमी नजर आती है, आन्दोलन की शुरुआत जिस मुद्दे को लेकर होती है धीरे-धीरे वह मुद्दा बदल जाता है, दिन-प्रतिदिन एक नया मुद्दा मानों यह कोई सिनेमा घर है जहां एक मूवी नहीं चल रही है, तो दूसरे मूवि लगा दो। गांधी ने भारत के आजादी के लिए अपना पहला सत्याग्रह 1917 में शुरु किया था लेकिन 40 साल के लंबे संघर्ष के बाद हमे आजादी प्राप्त हुई, गांधी भी उस समय के परिस्थितियों के कारण अपना लक्ष्य या जिस मार्ग पर वह चल रहे थे उस बदल देते तो शायद जिस ध्येय को वह प्राप्त करना चाहते थे नहीं कर पाते।

यह सही है कि देश में भ्रष्ट्राचार की जड़े काफी गहरे तक जम चुकी हैं, उस पर सरकार व राजनेताओं का उदासीन व्यवहार इसे और भी निराशाजनक बना देता है। अगर देश को सही मान्यें में इस परिस्थिती से बाहर लाना है तो हमें आन्दोलन कम इवेंट से बाहर आकर ठोस व व्यापक रणनीति तैयार करने की जरुरत पड़ेगी साथ इस महा संग्राम में हमें सभी को साथ में लेकर चलने की भी आवश्यकता है, आज आम जन मानस में जागृति की कमी नहीं बस इस आम जन सही राह दिखानी है, हमें दोहरे स्तर पर इस भ्रष्ट्र तंत्र से लड़ना होगा, राजनीतिक व समाजिक, हमें यह स्वीकार करने में जरा सी हिचक नहीं होनी चाहिए कि देश में अगर राजनीतिक भ्रष्ट्राचार है तो यहाँ सामाजिक भ्रष्ट्राचार भी व्यापत है। देश को इस मकडजाल से बाहर निकालने की जिम्मेदारी सिर्फ राजनैतिक दलों, नेताओं, प्रबुद्ध वर्गो की ही नहीं है यहाँ जितनी जिम्मेदारी इन लोगों की है उससे कहीं ज्यादा जिम्मेदारी हमारी बनती है कि हम किस प्रकार दृढ इच्छा शक्ति के साथ भारत को इस जाल से मुक्त कराते हैं। आखिरकार लोकतंत्र जनता का, जनता पर, जनता के द्वारा किया गया शासन है। अगर हम दृढ निश्चच कर ले कि हम जाति, धर्म व क्षेत्रवाद से ऊपर उठकर ऐसे नेतृत्व का चुनाव करेगें जो ईमानदारी से देश के लिए काम करेगा, तो कोई भी राजनैतिक दल चाह कर भी हमारे ऊपर इस विषैले तंत्र को नहीं थोप सकता है।

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