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लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ या राजनैतिक ताकतों की कठपुतली... ?
" पत्रकारिता लोकतन्त्र का चौथा स्तम्भ है " लगता है इस देश में यह स्तम्भ स्वयं भरभराकर ढहने की कगार पर खड़ा है और साथ ही भारतीय लोकतन्त्र को भी ढहाने की कसम खा चुका है। पिछले कुछ वर्षों में विशेषकर बीते कुछ महीनों के परिदृश्य पर दृष्टि डालें जहाँ भारतीय मीडिया की अपरिपक्वता, जल्दबाज़ी, गैर जिम्मेदारना व्यवहार और बाज़ार अथवा राजनैतिक ताकतों की कठपुतली जैसा व्यवहार बिलकुल स्पष्ट दिखाई देता है। नवीनतम उदाहरण देखें- "
जनता के प्रिय एवं मीडिया के ‘चोखेर बाली’ (आँख की किरकिरी) अर्थात गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी, इन्टरनेट द्वारा भारतीय जनता से सीधा संवाद करते हैं। एक राज्य का प्रमुख, आम जनता के प्रश्नों का समाधान सीधे संवाद के माध्यम से कर रहा था। निश्चित रूप से मीडिया को मोदी या किसी भी राजनैतिक द्वारा की जाने वाली इस पहल की प्रशंसा करनी चाहिए थी। ऐसी अपेक्षा इस कारन थी क्यूंकि काँग्रेसी युवराज के कथित दलित-प्रेम को तो मीडिया बिना थके लाइव दिखाता रहा परन्तु इस अभिनव संवाद को 'मोदी का हैंग आउट', 'प्रचार स्टंट', 'नरोदा पाटिया फैसले को ढंकने की साजिश' जैसे विचित्र और अन्यायपूर्ण विशेषणों से जनता को परोसा गया।
कुपोषण पर मोदी के विचारों का मखौल उड़ाने का हरसंभव प्रयास किया गया, जबकि गरीब नहीं अपितु मध्यवर्ग की महिलाओं में कुपोषण की समस्या के संदर्भ मे वही बोला गया जो डॉक्टर भी कह रहे हैं कि वज़न के प्रति अत्यधिक सतर्कता ने किशोरी व युवा लड़कियों को पौष्टिक आहार से दूर कर दिया है। मीडिया को चाहिए था कि इस वक्तव्य के माध्यम से किशोरियों में खानपान को लेकर जागरूकता बढ़ाये किन्तु ठीक उलट हुआ। मीडिया वक्तव्य की विद्रूप व्याख्या पर उतर आया। क्या मीडिया 'मोदी विरोध' के लिए अपना विवेक भी खो बैठा है?
दूसरा उदाहरण बाबा रामदेव के नेतृत्व वाले जन आंदोलन का -- भारत ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व में भारत के योग ज्ञान एवं आयुर्वेद का परचम लहराने वाले, जन जन तक इसे ज्ञान को सहज और सरल रूप से ले जाने वाले बाबा रामदेव को मीडिया भला बुरा कहता रहा, उनके आंदोलन को मिले अपार जनसमर्थन को 'भीड़' घोषित कर, ट्रैफिक समस्या का रोना रोने लगे।
एक ऐसा उदाहरण जिसमे मीडिया के पक्षपातपूर्ण रवैये ने भारत की एकता को खतरे मे डाल दिया। मसलन असम में अवैध बांग्लादेशी घुसपैठियों (विडियो) द्वारा की गयी हिंसा के फलस्वरूप लाखों असमियों को पलायन करना पड़ा किन्तु मीडिया के लिए यह खबर महत्वपूर्ण न थी।
अंग्रेजी मीडिया के सबसे बड़े नाम 'राजदीप सरदेसाई' बड़ी बेशर्मी से ट्वीट करते नज़र आए - "अभी तो केवल 21 लोगों की मृत्यु हुई हैं" (तो क्या आप 5-10 हज़ार लोगों की मृत्यु चाहते थे?) खैर, अंततः मीडिया हरकत मे आया किन्तु एक धर्म-विशेष के लोगों को संतुष्ट करने के लिए... बांग्लादेशी घुसपैठियों के विरुद्ध भारतीय संघर्ष को 'हिन्दू बोड़ो बनाम मुस्लिम' रक्तपात के तौर पर चित्रित किया। इसका परिणाम क्या हुआ? जहाँ एक ओर असम के मूल निवासियों की आवाज़ दबकर रह गयी तथा अन्य राज्यों मे बसे पूर्वोत्तर के लोगों को प्रताड़ित किया गया, वहीं दूसरी ओर पूरे देश मे हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य का का जहर घुलने लगा।
@prasad_paatkar 21 died in Assam, more than a 1000 in Gujarat. scale and intensity, plus logistics will determine media coverage.
— Rajdeep Sardesai (@sardesairajdeep) July 24, 2012
इसी तरह आज़ाद मैदान (विडियो) घटना के पश्चात हुई गिरफ्तारी के संबंध मे जब महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री मराठी प्रैस कोन्फ्रेंस को संबोधित कर रहे थे, तब एक (अति) होशियार पत्रकार ने उन्हे टोक दिया कि हिन्दी मे जवाब दीजिये। मुख्यमंत्री हिन्दी मे पहले ही प्रैस कोन्फ्रेंस कर चुके थे, अतः उन्होने विनम्रता से उत्तर दिया कि हिन्दी में जवाब दे चुका, यह मराठी प्रैस कोन्फ्रेंस है अतः मैं मराठी मे जवाब दूंगा। अगले दिन मीडिया मे खबर थी- "महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री ने किया हिन्दी बोलने से इनकार।" अब इसे क्या कहा जाए? अपने आप को ज़्यादा ही बुद्धिमान समझने वाले मीडिया द्वारा बनाई गयी एक ऐसी गैर जिम्मेदारना खबर जिसने देश के विभिन्न भाषा-भाषियों को आपस मे भिड़ाने की कोशिश की। क्या स्थानीय भाषा के सम्मान का अर्थ राष्ट्रभाषा का अपमान है? क्या मीडिया को अब भी खुद पर शर्म नहीं आनी चाहिए?
सीएनएन-आईबीएन ने अपने चैनल प़र प्रदर्शित एक फिल्म में 'THE HUMAN BOUNDARIES' के दृश्यों को बिना अनुमति के तथा बिना यथोचित श्रेय दिए प्रयोग किया। इस मुद्दे को ट्विटर तथा फेसबुक के माध्यम से उठाया गया जिस पर लोगो में तीव्र प्रतिक्रिया भी हुई। '#CNNIBNLies' लगातार पूरे दिन ट्विटर पर ट्रेंड करता रहा तथा लोगों ने संपादक राजदीप सरदेसाई को लक्षित कर के सार्वजनिक क्षमा-याचना तथा भूल-सुधार की मांग क़ी। जैसे-जैसे इस मुद्दे ने जोर पकड़ा, चैनल विवाद को निबटाने की और बढ़ता दिखा।
पहले भी न्यूज़ चैनल ऐसी ही हरकतें कर चुके हैं, शायद आपको याद हो कि 26/11 के समय एक न्यूज़ चैनल [जो भूत-प्रेत, नाग-नागिन, पाताललोक की खबरों हेतु (कु)ख्यात है] कितने फख्र से बता रहा था कि आतंकवादी उसी का लाइव कवरेज देखकर अपनी रणनीति बना रहे हैं। मीडिया के इस अति-उत्साह की कीमत हमने अपने 02 बहादुर सैनिक और कई निर्दोष मासूमों की जान देकर चुकाई है।
वर्तमान समाचार मीडिया के हाव-भाव देखकर लगता नहीं कि अब उन्हें देश की कोई चिंता है। चिंता बची है तो केवल टीआरपी की। आजकल समाचार होते नहीं, बनाये जाते हैं। आखिर अपना प्रॉडक्ट यानि न्यूज़ बेचनी जो है! (आपको बता दूँ कि आजकल न्यूज़ को मीडिया की कार्यभाषा मे ‘प्रॉडक्ट’ ही कहा जाता है) वरना आप ही सोचिए कि जब-तब साम्यवाद का नारा लगाने वाले और ‘गरीबों के हमदर्द’ वरिष्ठ पत्रकार खुद लाखों रुपये महीने की तनख्वाह कैसे पाते होंगे?
इसके बावजूद मीडिया की थोड़ी बहुत विश्वसनीयता केवल इसलिए बची रह गयी है क्योंकि भारत के जहन में आज भी स्वतन्त्रता संग्राम का शंखनाद करने वाली भारतीय पत्रकारिता की यादें ताज़ा हैं। हमे याद है केसरी, संध्या, युगांतर, यंग इंडिया जैसे समाचार पत्र जो निर्भीक होकर भारत की स्वतन्त्रता और हित की बात करते थे। भारत की आज़ादी और विकास मे भी उनका अविस्मरणीय योगदान है। शायद इसीलिए पत्रकारिता को लोकतन्त्र का चौथा स्तम्भ कहा गया था। क्या पत्रकारिता का वह स्वर्णयुग कभी फिर से लौट पाएगा?
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