वंशवाद बनाम जनतंत्र

Published: Monday, Aug 27,2012, 01:12 IST
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आज हम हमारी संसद के 60 वर्ष पूर्ण होने का जश्न मना रहे है, भारत को विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का गौरव प्राप्त है। जहाँ आजादी के बाद हमारे पड़ोसी देशों में निरंकुश व सैन्य शक्ति के सामने लोकतंत्र ने दम तोड़ दिया वहीं भारत में प्रतिकुल परिस्थितयों में भी लोकतंत्र ने अपनी मजबूती बनाये रखी। जैसे-जैसे हम आगे बढते गये हमारा लोकतंत्र भी मजबूत होता गया। इतनी विषमताओं के बावजूद भी मारत में लोकतांत्रिक प्रणाली निशपक्ष है इसमें सभी वर्गों व समाज की भागीदारी है। भारती लोकतंत्र की मजबूती का लोहा आज संपूर्ण विश्व मानता है लेकिन जिस प्रकार सिक्के दो पहलू होते है उसी प्रकार सफलता के दो पहलू होते है सकारात्मक व नकारात्मक और सफलता को सुदृढ बनाने के लियें ये आवश्यक है कि हम अपने नकारात्मक पहलुओं की खुली चर्चा करके इसके समाधान का उपाये करें यहीं जनतंत्र की विशेषता भी है।

जैसे जैसे देश में लोकतंत्र मजबूत होता गया वैसे वैसे वंशवाद ने भी अपने जड़े मजबूती से जमा ली। जब देश में क्षेत्रीय व जाति आधारित पार्टियों का वर्चस्व बढा तो इसने वंशवाद की बेल को और मजबूती प्रदान की।

कांग्रेश देश की सबसे पुरानी राजनैतिक दल है आजादी से पूर्व इस दल पर किसी परिवार विशेष का एकाधिकार नहीं था। इसके पहले अध्यक्ष वोमेश चंद्र बैनर्जी से लेकर बाद के कई नेता चाहे वह दादा भाई नौरोजी हो या सुभाष चन्द्र बोस हो सभी अलग- अलग पृष्ठ भूमि से आते थे। आजादी के बाद नेहरु देश के पहले प्रधांनमंत्री बने और तब से लेकर अब तक कांग्रेस पर गांधी परिवार का ही एकतरफा वर्चस्व रहा है। वर्तमान में भी प्रधानमंत्री बेसक माननीय मनमोहन सिंह जी हो लेकिन यह जग जाहिर है कि सत्ता वास्तव में कहां से चलती है पार्टी में अंतिम निर्णय किसका होता है। क्षेत्रीय व जातिय आधारित दलो ने वंशवाद के इस विषैले पौधे के लिए के लिए अमृत का काम किया।

लोहिया ने भारत में समाजवाद के धारा का प्रवाह किया वह जाति व वंशावली आधारित राजनीति को भारत से हटाना चाहते है थे लेकिन उनके दुनिया से जाने के बाद उनके ही समर्थकों ने उलटी गंगा बहानी शुरु कर दी। हाल में ही उत्तर प्रदेश का चुनाव संपन हुआ है और समाजवादी पार्टी ने अखिलेश के नेतृत्व में पूर्ण बहुमत हासिल किया है। अखिलेश को सत्ता की विरासत उऩके पिता मुलायम सिंह यादव से मिली है ये हो सकता है कि अखिलेश अच्छे नेता साबित हों लेकिन क्या पार्टी में और कोई योग्य नेता नहीं था जिस को कमान सौपी जा सकती थी। महाराष्ट्र में भी एक वक्त था जब राज ठाकरे में बाला साहेब ठाकरे की परिछांई दिखती थी लेकिन जब पार्टी का कमान सौपने के बारी आई तो बाला साहेब ने अपने खून पर ज्यादा विश्वास दिखाया और उद्धव को पार्टी का कमान सौंप दिया। तमिलनाडु में करुना नीधि ने का परिवार सभी प्रमुख पदों पर काबिज था। यही हाल लगभग सभी दलो का है।

पंजाब में मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल को उपमुख्यमंत्री पद व पार्टी अध्यक्ष के लिए अपने बेटे सुखवीर सिंह बादल से योग्य व्यक्ति नहीं मिला। उड़ीसा में बीजु पटनायक को अपने पुत्र नवीन पटनायक में ही नेतृत्व के सारी क्षमता ऩजर आयी तो जन्मू-कश्मीर में फारुक अब्दुला को उमर अब्दुला ही सियासी दावं पेच में सबसे अवल ऩजर आये। कमोबेश यही हाल लगभग सभी पार्टियो का है इनको अपने खून व अपने सगे संबंधियो में सभी खूबिया ऩजर आती है जिसका दामन देखो वही दागदार ऩजर आता है। अपवाद के रुप में दक्षिणपंथ की भारतीय जनता पार्टी व वामंपथ की पार्टियां है जो कुछ हद तक इनसे दूर है। लेकिन इन दलों में भी वंशवाद ने अपने जड़ो को फैलाना शरु कर दिया है। हांलाकि यहां राजनेताओं के पुत्र, सगे संबंधियों का राजनीति में आने का कोई विरोध नहीं है बशर्ते यह योग्यता के आधार पर हो न कि व्यवसायिक वंश परंपरा पर आधारित हो।

अगर वंशवाद का दंश इसी प्रकार फैलता रहा तो यह हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था को दूषित व विषैला बना देगा। सफल जनंतत्र का मूल मंत्र ही यही है कि इसमें सभी को योग्यता के आधार पर आगे आने का मौका मिलना चाहिए। अगर वंशवाद के इस बेल अभी बढ़ने से नहीं रोका गया तो भारत पर कुछ परिवार विशेष का अधिकार हो जायेगा।

वंशवाद को जड़ से उखाड़ फैकने के लिए दृढ राजनैतिक इच्छा शक्ति के साथ जरुत है समाज को जागरुक होने की। यहां जितनी जिम्मेदारी राजनैतिक दलों की है उससे कहीं ज्यादा जिम्मेदारी हमारी बनती है कि हम किस प्रकार दृढ इच्छा शक्ति के साथ भारत को वंशवाद के इस जाल से मुक्त कराते है। आखिरकार लोकतंत्र जनता का, जनता पर, जनता के द्वारा किया गया शासन है। अगर हम दृढ निश्चय कर ले कि हम जाति, धर्म व क्षेत्रवाद से ऊपर उठकर अपने नेता का चुनाव करेगें तो कोई भी राजनैतिक दल चाह कर भी हमारे ऊपर इस विषैले वंशवाद को नहीं थोप सकता है।

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