राम भजने नहीं राम बनने का समय

Published: Monday, May 21,2012, 17:17 IST
By:
0
Share
bhagwat gita, lord rama, lord vishnu, tulsidas, ramcharitmanas, Kaliyuga, ibtl

राम भजने नहीं राम बनने का समय ... श्रीमद्भागवद्गीता का एक श्लोक है -
यद्यदाचरति श्रेष्ठः तत्तदेवेतरो जनः। स यत्प्रमाणम् कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥ – भगवद्गीता ३.२१

अर्थात श्रेष्ठ पुरुष जैसा जैसा आचरण प्रमाण-पूर्वक करता है, सामान्य लोग उसी का अनुकरण करते हैं। गीता एक ऐसा ग्रन्थ है जिस पर पौराणिक सनातन धर्मियों एवं वैदिक आर्य समाजियों दोनों की श्रद्धा है। पौराणिक श्रद्धालु उसे महाविष्णु के श्रीकृष्ण अवतार की वाणी मान कर पढ़ते हैं तो आर्य समाजी उसे महापुरुष, महान कर्मयोगी एवं राष्ट्रभक्त राजनीतिज्ञ श्री कृष्ण का व्याख्यान मान कर उसके अनुरूप आचरण करने की संस्तुति करते हैं। वस्तुतः गीता निर्विवाद रूप से कर्म करने की संस्तुति करती है। ऐसा कर्म जो लोक-कल्याण के लिए हो एवं फल की आसक्ति से रहित हो। वह कर्म जो ईश्वर को समर्पित हो, ईश्वर भक्ति से ओत-प्रोत हो। और इसी लिए गीता को इस दृष्टि से समझने की आवश्यकता है।

भक्ति कैसी? कर्म त्याग कर भगवान् भरोसे सब कुछ छोड़ देने वाली भक्ति, या भगवान् में श्रद्धा रख कर निष्ठा पूर्वक धर्म-संगत कर्मों को संपन्न करने वाली भक्ति? एक ओर पहली भक्ति का उदाहरण है जब सोमनाथ के मंदिर में रखी मूर्ति को ही भक्त ये मान कर पूजते रहे कि यह विपदाओं से हमारी रक्षा करेगी। आक्रान्ता आये, मंदिर लूटा, मूर्ति ध्वस्त कर दी। नरसंहार किया और सनातन धर्मियों की आस्था खंड खंड कर चले गए। दूसरी भक्ति के भी उदाहरण हैं। शिवाजी, जिन्होंने तोरणा किले में बंदिनी माँ तोरणाई की मूर्ति को माँ का ही स्वरुप मान कर मुक्त करवाने की ठानी और किले को १७-१८ वर्ष की अवस्था में आदिल शाह के सरदार इनायत खां के अधिकार से मुक्त करवाया।

इसी प्रकार पहली अकर्मण्य भक्ति के उदाहरण है भाग्य सुधारने के लिए तरह तरह के उपाय सुझाने वाले भाँति भाँति के बाबा जो सनातन धर्म का ही उपहास बनाने का माध्यम तो बन ही रहे हैं, सनातन धर्मियों को भी अंध-श्रद्धा के मार्ग पर धकेल कर, उन्हें भीरु बना कर अपना व्यापार चला रहे हैं। और वही दूसरी ओर, लोक-कल्याण में कर्म करने का मार्ग सुझाती दूसरी भक्ति के उदाहरण बन उभरने वाले बाबा रामदेव अथवा वात्सल्य-ग्राम के माध्यम से "चरित्रहीनता के चौराहे पर छोड़ दी गयी संततियों को सनातन की संतान समझ कर" अपनाने वाली दीदी माँ साध्वी ऋतंभरा, जो सतत राष्ट्र-निर्माण के लिए न केवल कर्म कर रहे हैं, अपितु कर्म करने के लिए प्रेरणा भी देते चलें जा रहे हैं। श्री राम जन्मभूमि को बाबरी आतंक के पर्याय एवं अतिक्रमण की जीते-जागते चिन्ह से मुक्त करवाने का आन्दोलन भी उसी दूसरी भक्ति का उदाहरण था।

भक्ति और कर्म को जोड़ने का उदाहरण तो ईसाई मिशनरी भी हैं। उन्हें उनका धार्मिक ग्रन्थ सिखलाता है कि किस प्रकार समस्त संसार को यीशु की शरण में लाना है। वो उसी ध्येय को प्राप्त करने में लगे हैं और भक्ति-युक्त कर्म कर रहे हैं। भारत के उत्तर-पूर्व का एक बड़ा भूभाग आज सनातन छोड़ उनके अथक प्रयासों से यीशु का अनुयायी हो गया है। दक्षिण में भी कुछ जगह ऐसी ही स्थिति है। अल्लाह की भक्ति में अपने धर्मग्रन्थ में बतलाया जिहाद कर्म करके येन-केन-प्रकारेण १४०० वर्षों में इस्लाम को अथाह विस्तार देने वाले अनुयायी भी उदाहरण हैं। २००० वर्ष पुरानी ईसाईयत के आज १०० के लगभग देश और २.५ अरब के लगभग जनसँख्या है। १४०० वर्ष पुराने इस्लाम के ४० के लगभग देश और १.५ अरब के लगभग जनसँख्या है। २५०० वर्ष पहले सनातन धर्म से ही अलग हुई शाखा बुद्ध धर्म के भी लगभग ५० करोड़ अनुनायी हैं। भक्ति का कर्म से सम्बन्ध काटने वाले अनुयायियों के कारण सिमटने सिकुड़ने वाला तो सनातन है। पश्चिम में आर्यान (ईरान) से पूर्व में ब्रह्म-देश (बर्मा - म्यांमार) और उत्तर में त्रिविष्टप (तिब्बत) से दक्षिण में सागर तक अपना प्रत्यक्ष विस्तार रखने वाला और विश्व भर को अपने दर्शन से परोक्ष रूप से प्रभावित करने वाला सनातन न केवल आज छोटे से भू-भाग में सिमट गया है, अपितु वहाँ भी अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए संघर्ष-रत है और अपनी आत्मा वहाँ भी खो रहा है।

कभी सर्वे भवन्तु सुखिनः के लिए पुरुषार्थ करने वाले सनातनी आज अपनी छोटी छोटी समस्याओं के लिए भगवान् से प्रार्थना करने और मंदिरों में चढ़ावा चढ़ाने तक सीमित हो रहे हैं। सामूहिक अस्तित्व एवं पहचान की भावना नष्ट हो चुकी है। हम तिरुपति में सोने का मुकुट चढ़ा कर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री समझते हैं। उसी धन से निर्धन बच्चों की शिक्षा दीक्षा का प्रबंध कर के उन्हें राष्ट्र-निर्माण के कार्य में लगाना हमें स्वीकार नहीं। तो क्या हुआ अगर वो निर्धन परिवार ईसाई मिशनरियों के चंगुल में फँस कर अपना भविष्य सुधारने के चक्कर में ईसाई बन कर कल हमारे ही तिरुपति को गाली देने के लिए खड़े हो  या उत्तर-पूर्व की तरह अलग देश की मांग करने लगें। यही हमारे विनाश का कारण है। अपनी एवं परिवार की सुख शांति के लिए यज्ञ करने वाले तो आज भी बहुत हैं, पर सनातन को बचाने के लिए कर्म रुपी यज्ञ करने वाले सनातनी कितने हैं? जो हैं, उन पर  'साम्प्रदायिकता' का ठप्पा लगा दिया गया है और उस ठप्पे को लगाने वाले भी हिन्दू ही हैं। सारी पृथ्वी को अपना परिवार मान कर वसुधैव कुटुम्बकं का पयोधि-पान समस्त विश्व को करवाने वाला सनातनी भारत किस प्रकार सेकुलरिस्म की विदेशी भांग के नशे में धुत्त हुआ अपने ही अस्तित्व को क्षत-विक्षत कर रहा है, यह आज किसी से छुपा नहीं है। [ Sanatan Secularism ]

बात स्पष्ट है। जब जब किसी भी समाज ने  कर्महीन भक्ति की शरण ली है, तब तब वह समाज अधोगति को प्राप्त हुआ है। वह समाज, वह संस्कृति मिट गयी है अथवा मिटते मिटते बची है। और जब जब कर्म करने का संकल्प लेकर "मनुष्य तू बड़ा महान है" का स्मरण करके समाज आगे बढ़ा है, तब तब उसने अपनी संस्कृति को सिंचित किया है, उसे फलते फूलते देखा है। परिणाम कर्म का ही मिलता है। भक्ति के नाम पर कर्म त्याग देना तो समाधान नहीं। राम, जिन्हें हम ईश्वर का अवतार कह पूजते हैं, केवल भक्ति से तो उनका भी गुजारा नहीं हुआ।

"तीन दिवस तक पंथ माँगते रघुपति सिन्धु किनारे, पढ़ते रहे बैठ छंद अनुनय के प्यारे प्यारे,
उत्तर में जब नाद एक भी उठा नहीं सागर से, छलक अधीर उठा पौरुष का तेज राम के शर से।"

तीन दिन राम बैठ कर सागर की भक्ति करते रहे, परन्तु सागर टस से मस नहीं हुआ। अंततः राम को कर्म करना ही पड़ा। सागर पर सेतु बांधना पड़ा। वानर सेना ने पत्थर जुटाए और राम सेतु का निर्माण किया। यदि सीता माँ अपहृत होते समय अपने आभूषणों को ऋष्यमूक पर्वत पर गिराने का कर्म न करती, और राम-लक्ष्मण उन्हें खोजने का पुरुषार्थ न करते, तो क्या उनका अनुसंधान संभव हो पाता? हनुमान की राम-भक्ति में तो कोई कमी नहीं थी, लेकिन केवल राम-भक्ति से तो हनुमान भक्त शिरोमणि नहीं कहलाते। वे भक्त शिरोमणि कहलाते हैं क्योंकि उन्होंने माँ सीता को खोजने का पुरुषार्थ कर्म किया। जब राम-लक्ष्मण को नाग पाश में बाँध कर पाताल लोक ले जाया गया, तब उन्होंने उन्हें बचा कर लाने का वीर कर्म किया। लक्ष्मण की रक्षा के लिए संजीवनी लाने का कर्म किया। निरंतर प्रभु भक्ति में लीन रहने वाले ऋषि मुनि भी तो नए नए अनुसंधान कर्म कर देवताओं को शक्तिशाली बनाते रहते थे, और उनकी रक्षा के लिए भी तो राम को तड़का-सुबाहु वध का कर्म करना ही पड़ा। तुलसीदास जी को ही ले लें। केवल रामभक्ति ने तो उन्हें अमर नहीं किया। यदि वे रामभक्ति में रामचरितमानस का लेखन करने के सत्कर्म न करते, तो आज उन्हें कौन जानता। एक मानस लिख कर उन्होंने घोर दासता के उस काल में कितने ही सनातन धर्मियों को आस्था का नया अवलम्ब प्रदान कर दिया। उदाहरणों की कमी नहीं है। भक्ति के सामान दूसरा कुछ नहीं। भक्ति भगवान् तक पहुँचाने का मार्ग है, लेकिन भक्ति के साथ कर्म का संग आवश्यक है। बिना भक्ति का कर्म विकर्म है, परन्तु बिना कर्म की भक्ति तो किसी काम की नहीं।

आज गीता के इसी मर्म को समझाने की आवश्यकता है। "कलियुग में तो राम नाम ही आधार है - हरे राम, हरे कृष्ण जपने से ही मोक्ष मिलेगा" - इस प्रकार की मानसिकता ने ही हमारा विनाश कर हमें सहस्त्र वर्ष की दासता की ओर धकेला था। यदि हम अब भी न जागे तो लक्षण अच्छे नहीं हैं। सनातन की रक्षा में लगे कर्मयोगियों के साथ कंधे से कन्धा मिला कर खड़े होने और कदम से कदम मिला कर चलने की आवश्यकता है। संघ की प्रार्थना के शब्द अनायास ही स्मरण हो आते हैं - "त्वदीयाय कार्याय बध्दा कटीयं शुभामाशिषं देहि तत्पूर्तये।" भक्ति एवं कर्म का समुचित मेल यहाँ दृष्टि-गोचर होता है। आज पुनः विवेकानंद बन समाज को जगाने की आवश्यकता है। राधे-कृष्ण जपने की नहीं, पुनः कृष्ण के समान धर्म-युद्ध में धर्म की रक्षा के लिए खड़े होने का समय है। राम बन कर सनातन धर्म एवं सनातन की मूल भारत भूमि की रक्षा के लिए धनुष उठाने का समय है। कृष्ण-भक्तों, कृष्ण सरीखे बन जाओ। राम भक्तों - राम बन कर दिखलाओ।

विजेत्री च नः संहता कार्यशक्तिर्, विधायास्य धर्मस्य संरक्षणम्। परं वैभवं नेतुमेतत् स्वराष्ट्रं, समर्था भवत्वाशिषा ते भृशम्।।
(तेरे आशीर्वाद से हमारी विजयशालिनी संगठित कार्यशक्ति धर्म का रक्षण कर अपने इस राष्ट्र को परम वैभव की स्थिति में ले जाने में नितांत समर्थ हो।)

Comments (Leave a Reply)

DigitalOcean Referral Badge